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09:45, 13 जुलाई 2013
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बुनियादी तौर पर हर इक औरतमन से स्वतन्त्र होती जो दिखती है,उसे या बनती है वह कभी बनना नहीं भाता ढोंगचाहतीभूमिकाओं में बंधना नहीं चाहती उसके ज़मीर कोजज़ीरों में बाँधकरपुरजोर कोशिश की जाती है कि वह बने औरत बस खालिस औरत भूमिकाओं में बंधा उसका मनरोता है चक्की के पाटों में पिसालड़ती है वह अपने से हज़ार बार रोती है ढोंग पर फिर भी करती है।लम्बी टिकुलीधिक्कारती है वह अपने औरतपन को--- मेरी मानो, चूड़ी भरे हाथसिन्दूर सिक्त माथाउसे एक बार छोड़ के देखोउतारने दो उसे कभी नहीं लुभा पाताअपने भेंड़ के चोले को फिर भी करती देखो कि वह बहती नदी है अभिनय--इसमें रचे- बसे रहने काएक बार वह गयी तो शायद... फिर हाथ नहीं आयेगीयही रास्ता शेष है उसके जीने का।हाथों से फिसल जायेगी।
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