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Kavita Kosh से
आया मौसम खिला फ़ारस का गुलाब,
उठाकर सर शिखर से अकडकर बोला कुकुरमुत्ता
अबे,सुन बे गुलाब
भूल मत जो पाई खुशबू,रंगोआब,
खून चूसा खाद का तूने अशिष्ट,
बहुतों को तूने बनाया है गुलाम,
माली कर रक्खा,खिलाया जाडा घाम;
टट्टू जैसे तबेले को तोडकर।
शाहों,राजों,अमीरों का रहा प्यारा,
इसलिए साधारणों से रहा न्यारा,
वरना क्या हस्ती है तेरी,पोच तू;
काँटों से भरा है,यह सोच तू;
लाली जो अभी चटकी
तू हरामी खानदानी।
चाहिये तूझको सदा मेहरुन्निशामेहरुन्निसा
जो निकले इत्रोरुह एसी ऐसी दिसा
बहाकर ले चले लोगों को ,नहीं कोई किनारा,
जहाँ अपना नही कोई सहारा,
ख्वाब मे डूबा चमकता हो सितारा,
पेट मे डंड पेलते चूहे ,जबाँ पर लफ़्ज प्यारा।
नही दाना पर चुगा मै,
मेरा जीवन आप जगता,
तू है नकली,मै हूँ मौलिक,
तू है बकरा,मै हूँ कौलिक,
तू रंगा ,और मै धुला,
पानी मै तु मैं तू बुलबुला,
तूने दुनिया को बिगाडा,
मैने गिरते से उभाडा,
तूने जनखा बनाया,रोटियाँ छीनी,
मैने उनको एक की दो तीन दी।
सुबह का सूरज हूँ मै ही,
चाँद मै ही शाम का ;
नही मेरे हाड,काँटे, काठ या
नही मेरा बदन आठोगाँठ का।
रस मे मै डुबा उतराया।
मुझी मे गोते लगाये आदिकवि ने,व्यास ने,
मुझी से पोथे निकाले भास-कालिदास ने
हाफ़िज़ और टैगोर जैसे विश्ववेत्ता जो बडे।
कही का रोडा,कही का लिया पत्थर
टी.एस.ईलियट ने जैसे दे मारा,
यहीं से यह सब हुआ
जैसे अम्मा से बुआ ।