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|रचनाकार=पदुमलाल पन्नालाल बख्शी
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भाव रस अलंकार से हीन, अर्थ-गौरव से शून्य असार ।
 
नाम ही है वस जिनमें, पद्य ये हैं ऐसे दो-चार ।
 
बिल्व पत्रों का शुष्क समूह, कब किसी से आया है काम,
 
उन्हीं से होता जग को तोष तुम्हारा हो यदि उन पर नाम ।
 
लिख दिया है बस अपना नाम और क्या है लिखने की बात ?
 
नाम ही एकमात्र है सत्य और है नाथ ! वही पर्याप्त
 
पड़ेगी जब तक जग की दृष्टि, रहेंगे तब तक क्या ये स्पष्ट ?
 
किन्तु तुम तो मत जाना भूल, नाम का गौरव हो मत नष्ट ।
 </poem>
(‘प्रेमा’, दिसम्बर 1930 में प्रकाशित)
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