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|रचनाकार=श्यामनन्दन किशोर
}}
{{KKCatKavita}}<poem>चीख उठा मन्दिर की कारा से बन्दी भगवान-<br>पूजित होने दो पत्थर की जगह नया इन्सान,<br><br>
जगत का होने दो कल्याण ।<br><br>कल्याण।
मुक्त करो, अभियुक्त न हूँ, इन काली दीवारों से<br>और न अब गुमराह करो तुम श्रद्धा से, प्यारों से<br>ओ मंदिर-मस्जिद के तक्षक, ठेकेदार धरम के<br>करो स्वर्ग की पापभूमि पर मिट्टी का आह्वान,<br><br>
जगत का होने दो कल्याण ।<br><br>कल्याण।
मुझ पर नये सिंगार, न ढँक पाती जब मनु की लाज<br>मुझको भोग हज़ार, क्षुधा से मरता रहा समाज<br>बन्द करो, अब सहा न जाता मुझसे अत्याचार<br>बन्द करो, अब पत्थर पर तुम फूलों का बलिदान,<br><br>
जगत का होने दो कल्याण ।<br><br>कल्याण।
मंदिर का आंगन है जमघट लोभी का, वंचक का<br>महा अस्त्र है धर्म बन गया अन्यायी, शोषक का<br>कब तक बेच कफन मानव का, मूर्ति सजाओगे तुम,<br>कब तक चाँदी के टुकड़ों पर बेचोगे ईमान?<br><br>
जगत का होने दो कल्याण ।<br><br>कल्याण।
एक नया इन्सान भेद की कारा जो तोड़ेगा-<br>जो मिट्टी की शुचि काया में ही देवेत्व भरेगा<br>ओ मेरे गुमनाम विधाता, ओ मानव संतान<br>शिल्पकार अब बंद करो तुम प्रतिमा का निर्माण,<br><br>
जगत का होने दो कल्याण ।कल्याण।<br><br/poem>