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पत्थर हुई बूंद / हरकीरत हकीर

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<poem>ये कैसे पत्थर हैं
सिसकते हुए ....?
कहीं मिट्टी काँपी है
कोई रात रिश्ता पीठ पर लादे
दहाड़ें मार रो रही है ...
बेखबर से लफ्ज़
अँधेरे की ओट में
चाँद तारों की राह चल पड़े हैं ....

मुझे पता है ...
तूने तूफ़ानों के पास
नहीं बेचीं थी नज़्म
फिर ये ज़ख्म क्यों बिखरे पड़े हैं ...?

जब तुम आखिरी बार मिले थे
तभी ये बूंद पत्थर बन गई थी
आ आज इसकी कब्र पे
मिट्टी डाल दें .......!!
</poem>
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