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हवाएँ / जेन्नी शबनम

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<poem>हवाएँ
कटार है
अँगार है
तूफ़ान है
हवाएँ
जलती है
सुलगती है
उबलती है
हवाएँ
लहू से लथपथ
लाल और काले के भेद
से अनभिज्ञ
बवालों से घिरी है
हवाएँ
खुद से जिरह करती
शनै-शनै सिसकती है
हवाएँ
अपने ज़ख़्मी पाँव को
घसीटते हुए
दर-ब-दर भटक रही है
हवाएँ
अपने लिए बैसाखी भी नहीं चाहती
अब वो जान चुकी है
हवाओं की अपनी मर्ज़ी नहीं होती
जमाने का रुख
उसकी दिशा तय करता है !

(फरवरी 28, 2013)</poem>
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