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| रचनाकार=सतीश शुक्ला 'रक़ीब'
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<poem>

फिर से शहनाइयाँ, शामियाने में हैं
दो बड़ी कुर्सियाँ, शामियाने में हैं

जब, जहाँ चाहिये, बस लगा लीजिये
अनगिनत ख़ूबियाँ, शामियाने में हैं

साथ सखियों के मिलकर सताती हैं जो
चुलबुली भाभियाँ, शामियाने में हैं

सालियाँ लाएंगी, नेग दो, वर्ना ख़ुद,
ढूंढ लो, जूतियाँ, शामियाने में हैं

प्यार की फब्तियाँ, प्यार की गालियाँ
रात भर मस्तियाँ, शामियाने में हैं

वक़्त है, अब दुल्हन हो रही है बिदा
चारसू, सिसकियाँ, शामियाने में हैं

ये छुड़ाता है घर, गाँव, सखियाँ 'रक़ीब'
बस यही ख़ामियाँ शामियाने में हैं

</poem>
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