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घाट के रस्ते
उस बँसवट से
इक पीली-सी चिड़िया
उसका कुछ अच्छा-सा नाम है!
घाट के रस्ते<br>उस बँसवट से<br>इक पीली-सी चिड़िया<br>उसका कुछ अच्छा-सा नाम है !<br>मुझे पुकारे !<br>ताना मारे,<br>भर आएँ, आँखड़ियाँ !<br>उन्मन, ये फागुन की शाम है !<br>घाट की सीढ़ी तोड़-तोड़ कर बन-तुलसा उग आयीं<br>झुरमुट से छन जल पर पड़ती सूरज की परछाईं<br>तोतापंखी किरनों में हिलती बाँसों की टहनी<br>यहीं बैठ कहती थी तुमसे सब कहनी-अनकहनी<br><br>
आज खा गया बछड़ा माँ घाट की रामायन सीढ़ी तोड़-तोड़ कर बन-तुलसा उग आयींझुरमुट से छन जल पर पड़ती सूरज की पोथी !<br>परछाईंअच्छा अब जाने दो मुझको घर तोतापंखी किरनों में कितना काम है !<br><br>हिलती बाँसों की टहनीयहीं बैठ कहती थी तुमसे सब कहनी-अनकहनी
इस सीढ़ी पर, यहीं जहाँ पर लगी हुई है काई<br>फिसल पड़ी थी मैं, फिर बाँहों में कितना शरमायी आज खा गया बछड़ा माँ की रामायन की पोथी!<br>यहीं न तुमने उस दिन तोड़ दिया था मेरा कंगन !<br>यहाँ न आऊँगी अच्छा अब, जाने क्या करने लगता मन दो मुझको घर में कितना काम है!<br><br>
लेकिन तब तो कभी न हममें तुममें पल-भर बनती !<br>तुम कहते थे जिसे छाँह हैइस सीढ़ी पर, मैं कहती थी घाम यहीं जहाँ पर लगी हुई है !<br>काईअब तो नींद निगोड़ी सपनों-सपनों भटकी डोले<br>कभी-कभी तो बड़े सकारे कोयल ऐसे बोले<br>ज्यों सोते फिसल पड़ी थी मैं, फिर बाँहों में किसी विषैली नागिन ने हो काटा<br>कितना शरमायी!मेरे सँग-सँग अकसर चौंक-चौंक उठता सन्नाटा<br><br>यहीं न तुमने उस दिन तोड़ दिया था मेरा कंगन!यहाँ न आऊँगी अब, जाने क्या करने लगता मन!
पर फिर भी कुछ लेकिन तब तो कभी न जाहिर करती हूँ इस डर से<br>हममें तुममें पल-भर बनती!कहीं न कोई कह दे कुछतुम कहते थे जिसे छाँह है, ये ऋतु इतनी बदनाम मैं कहती थी घाम है !<br><br>अब तो नींद निगोड़ी सपनों-सपनों भटकी डोलेकभी-कभी तो बड़े सकारे कोयल ऐसे बोलेज्यों सोते में किसी विषैली नागिन ने हो काटामेरे सँग-सँग अकसर चौंक-चौंक उठता सन्नाटा
पर फिर भी कुछ कभी न जाहिर करती हूँ इस डर सेकहीं न कोई कह दे कुछ, ये ऋतु इतनी बदनाम है! ये फागुन की शाम है !<br/poem>