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{{KKRachna
|रचनाकार=प्रभाकर माचवे
}}
 
माता ! एक कलख है मन में, अंत समय में देख न पाया <br>
आत्मकीर के उड़ जाने पर बची शून्य पिंजर सी काया ।<br>
और देख कर भी क्या करता? सब वि