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बाल / हरिऔध

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बीर ऐसे दिखा पड़े न कहीं। 
सब बड़े आनबान साथ कटे।
 जब रहे तो डँटे डटे रहे बढ़ कर। 
बाल भर भी कभी न बाल हटे।
नुच गये, खिंच उठे, गिरे, टूटे।
 
और झख मार अन्त में सुलझे।
 
कंघियों ने उन्हें बहुत झाड़ा।
 
क्या भला बाल को मिला उलझे।
मैल अपना सके नहीं कर दूर।
 
और रूखे बने रहे सब काल।
 
मुड़ गये जब कि वे सिधाई छोड़।
 
तो हुआ ठीक मुड़ गये जो बाल।
हैं दुखाते बहुत, गले पड़ कर।
 
सब उन्हें हैं सियाहदिल पाते।
 
है कमी भी नहीं कड़ाई में।
 
किस लिए बाल फिर न झड़ जाते।
वे कभी तो पड़े रहे सूखे।
 
औ कभी तेल से रहे तर भी।
 
की किसी बात की नहीं परवा।
 
बाल ने बाल के बराबर भी।
या बरसता रहा सुखों का मेह।
 
या अचानक पड़ा सुखों का काल।
 
धार से या बहुत सुधार सुधार।
 
बन गये या गये बनाये बाल।
निज जगह पर जमे रहे तो क्या।
 
क्या हुआ बार बार धुल निखरे।
 
चल गये पर हवा बहुत थोड़ी।
 
जब कि ए बाल बेतरह बिखरे।
धूल में मिल गया बड़प्पन सब।
 
था भला, थे जहाँ, वहीं झड़ते।
 
क्या यही चाहिए सिरों पर चढ़।
 
बाल हो पाँव पर गिरे पड़ते।
किस तरह हम तुम्हें कहें सीधो।सीधे।
जब कि आँख में समा गड़ते।
 
हो न सुथरे न चीकने सुधारे।
 
जब कि हो बाल! तुम उखड़ पड़ते।
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