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पोल / हरिऔध

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<poem>
दूसरे बीर बन भले ही लें। 
बीरता तो हमीं दिखाते हैं।
 
हम उड़ाते अबीर हैं अड़ कर।
 
और बढ़ कर कबीर गाते हैं।
मान मरजाद है मरी जाती।
 
आबरू का निकल रहा है दम।
 भाँड़ भड़वे बनें न तब वै+से।कैसे।
जब कि गाने लगे भड़ौवे हम।
भाव के रसभरे कलेजे में।
 
हैं सुरुचि की जहाँ बहीं धारें।
 
गालियों से भरी, बुरी, गंदी।
 
होलियाँ गा न गोलियाँ मारें।
जाति का मान रह सका जिन से।
 
मान उन का कभी न कर दें कम।
 कर धामा धमा चौकड़ी भली रुचि से। क्यों मचा दें धामार धमार गा ऊधाम।ऊधम।
मोड़ लें मुँह न आदमीयत से।
 
तोड़ देवें न ढंग का तागा।
 
बात यह कान से सुनें रसिया।
 
नास रस का करें न 'रसिया' गा।
बेसुधो बेसुधे इतने न बन जावें कभी। जो बुरा धाब्बा धब्बा हमें देवे लगा। 
किस लिए हम ताल पर नाचा करें।
 
चाल बिगड़े क्यों बुरे चौताल गा।
दल बहँक जाय दिल-चलों जलों का जो। 
तो न बरसें उमड़ घुमड़ बादल।
 
जाय वह मुँह तुरंत जल, जिस में।
 
गा बुरी कजलियाँ लगे काजल।
माँ, बहन, बेटियाँ निलज न बनें।
 
इस तरह से हमें न लजवावें।
 
हैं लगातार तालियाँ बजती।
 
गालियाँ गा न गालियाँ खावें।
</poem>
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