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बेटियाँ / हरिऔध

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<poem>
हैं तभी से पड़ रहीं जंजाल में। 
जिन दिनों वे थीं नहीं पूरी खिली।
 
धूल में ही दिन ब दिन हैं मिल रही।
 
फूल की ऐसी हमारी लाड़िली।
हैं सदा बिकती भुगतती दुख बहुत।
 
धूम हैं उन के उखाड़ पछाड़ की।
 
हम भले ही लड़खड़ाती जीभ से।
 
बात कह लें लड़कियों के लाड़ की।
बेटियाँ छिलते कलेजे को कभी।
 
सामने आ खोल भी सकतीं नहीं।
 
किस लिए हम फेर दें उन पर छुरी।
 
जो कि मुँह से बोल भी सकतीं नहीं।
बेटियाँ जो सकीं नहीं चिüा।चिल्ला।
बारहा दुख बहुत ऍंगेजे पर।
 
तो कभी क्यों न हाथ रख देखें।
 
हम उछलते हुए कलेजे पर।
फूल जैसी के लिए भी काठ बन।
 
कब सके हम धूल में रस्सी न बट।
 
आज हम हैं चट उसी को कर रहे।
 
जो नहीं दिखला सकी जी की कचट।
मांस का वह है न, औ वह पास है।
 
जिस किसी के, हैं नहीं वे भी सगे।
 
जो कलेजा है कलप जाता नहीं।
 
ठेस लड़की के कलेजे में लगे।
खेह होते देख सुन्दर देह को।
 
नेह - धारें हैं नहीं जिस में बहीं।
 
जो न पिघला देख कलियाँ सूखती।
 
वह कलेजा है कलेजा ही नहीं।
बाप ही ढाह जो बिपद देवे।
 
तो किसे वह पुकारने जाती।
 
आह! सारी विपत्तिायों में ही।
 जो रही बाप बाप चिüाती।चिल्लाती।
उस बुरी चाह का बुरा होवे।
 
जो कि दे बोर बेटियाँ क्वारी।
 
चाहते हम जिसे रहे उस की।
 
हो गई चूर चाहतें सारी।
मान है, उन में अभी मरजाद है।
 बेटियों को मान वै+से कैसे लें मिसें। तो भला वै+से कैसे न माँगें मौत वे। 
जो जवानी की उमंगें ही पिसें।
लड़कियों को न बेतरह लूटें।
 
भूल उन का लहू न हम गारें।
 वे अगर हाथ का खेलौना खिलौना हैं। तो न उन को खेला खेला खिला खिला मारें।
क्यों न यह सोचा गया, हम किसलिए।
 
सुख सदा बिलसें, सदा वे दुख सहें।
 
क्यों कराते हम फिरें कायाकलप।
 
क्यों कलपती बेटियाँ बहनें रहें।
क्यों कलेजा थाम कर रोवें न वे।
 बेटियाँ वै+से कैसे न तो दुख में सनें। माँ बने अनजान सब वु+छ कुछ जान कर। आँख होते बाप जो अंधो अंधे बनें।
दुख भला किस तरह कहें उस का।
 जो पड़ी हो बिपत्तिा बिपत्ति - घानी में। 
दुख उठा मार मार मन अपना।
 
जो मरी हो भरी जवानी में।
</poem>
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