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|रचनाकार=मुज़फ़्फ़र हनफ़ी
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<poem>

रेत आँखों में इतनी है कि रो भी नहीं सकता
रोने का असर आप पे हो भी नहीं सकता

ये कह के सितमगर<ref>अत्याचारी</ref> मेरे काट दिए पाँव
काँटे तेरी राहों में तो बो भी नही सकता

सीने में लगी आग अता करता है दिन भी
बारूद भरी रात में सो भी नहीं सकता

बहती रहे गंगा मिरा इनआम<ref>पुरस्कार</ref> यही है
जो हाथ नहीं हैं उन्हें धो भी नहीं सकता

जलने की क़सम खाई है मिट्टी के दिये ने
ते़ज़ आँधी का मफ़हूम<ref>,तात्पर्य, उद्देश्य,अर्थ, भाव</ref> वो हो भी नहीं सकता

धरती को पसीने की ये बूँदें ही बहुत हैं
खेतों में सितारे कोई बो भी नहीं सकता

पेचीदा हैं इस दौर में मज़मून<ref>विषय</ref> ग़ज़ल के
मोती-से कोई ‘मीर’ पिरो भी नहीं सकता

</poem>
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