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{{KKRachna
|रचनाकार=मुज़फ़्फ़र हनफ़ी
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<poem>
बशर<ref>मनुष्य</ref> के हाथ मता-ए-अज़ीज़<ref>प्रिय वस्तु</ref> आई है
कई हज़ार बरस में तमीज़<ref>शिष्टता,विवेक, अक़्ल ज्ञान, सभ्यता,</ref> आई है

हर एक फूल है फ़ानूस<ref></ref> की हिफ़ाज़त<ref>सुरक्षा</ref> में
बहार अबके निहायत<ref>बहुत अधिक </ref> दबीज़<ref>संगीन, भारी</ref> आई है

नहीं ग़ुलाब पलट कर अभी नहीं आया
लहुलुहान कोई और चीज़ आई है

खड़े हैं धूप के परचम<ref>झण्डे</ref> तले दरो-दीवार
समझ रहे थे महल में कनीज़ <ref>दासी , सेविका</ref> आई है

किसी के आगे ‘मुज़फ़्फ़र’ ने सर झुकाया नहीं
न ऊँच-नीच की इसको तमीज़ आई है

</poem>
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