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{{KKRachna
|रचनाकार=प्रेमचन्द गांधी
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
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<poem>
सबसे बुरे दिनों में भी
नहीं लड़खड़ाई हमारी जुबान
विशाल पर्वतमाला हो या
चौड़े पाट वाली नदियां
रेत का समंदर हो या
पानी का महासागर
किसी को पार करते हुए
हमने नहीं बुदबुदाया
किसी अलौकिक सत्ता का नाम
पीढि़यों से जानते हैं हम
जैसे पृथ्वी के दूसरे जीव
पार कर लेते हैं प्राकृतिक बाधाएं
बिना किसी ईश्वर को याद किए
मनुष्य भी कर लेगा.
</poem>
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|अनुवादक=
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सबसे बुरे दिनों में भी
नहीं लड़खड़ाई हमारी जुबान
विशाल पर्वतमाला हो या
चौड़े पाट वाली नदियां
रेत का समंदर हो या
पानी का महासागर
किसी को पार करते हुए
हमने नहीं बुदबुदाया
किसी अलौकिक सत्ता का नाम
पीढि़यों से जानते हैं हम
जैसे पृथ्वी के दूसरे जीव
पार कर लेते हैं प्राकृतिक बाधाएं
बिना किसी ईश्वर को याद किए
मनुष्य भी कर लेगा.
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