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<poem>
इस बार सोचा तुम्हे फिर से चाह कर देखूँ
ऐसे जैसे मैं रही हूँ सोलह वर्ष
और तुम उससे एक ज्यादा...

फिर चाहूँ
और दौडूँ तुम्हारे पीछे

भूल जाऊँ बीच में ये
ठिठकी रुकूँ
और सिर ऊँचा कर देखूँ
बादलों की नक्काशी किये आसमान को
देखने लगूँ तितलियों के निस्पृह पंख
बीन लूँ हरसिंगार की झड़ी पत्तियाँ
लाल फ्रॉक में।

फिर झाड़ भी दूँ हरी दूब पर
तुम्हारी मुस्कान के पीछे दौड़ते हुए सब ..
बदली बरस जाती है
बीन कर नदी की धार ज्यों।
</poem>
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