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|रचनाकार=कबीर
|संग्रह=
}}
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<poem>
संसारी से प्रीतड़ी, सरै न एको काम |
दुविधा में दोनों गये, माया मिली न राम ||
संसारियों से प्रेम जोड़ने से, कल्याण का एक काम भी नहीं होता| दुविधा में तुम्हारे दोनों चले जयेंगे, न माया हाथ लगेगी न स्वस्वरूप स्तिथि होगी, अतः जगत से निराश होकर अखंड वैराग्ये करो|
स्वारथ का सब कोई सगा, सारा ही जग जान |
बिन स्वारथ आदर करे, सो नर चतुर सुजान ||
स्वार्थ के ही सब मित्र हैं, सरे संसार की येही दशा समझलो| बिना स्वार्थ के जो आदर करता है, वही मनुष्य विचारवान - बुद्धिमान है |
</poem>
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संसारी से प्रीतड़ी, सरै न एको काम |
दुविधा में दोनों गये, माया मिली न राम ||
संसारियों से प्रेम जोड़ने से, कल्याण का एक काम भी नहीं होता| दुविधा में तुम्हारे दोनों चले जयेंगे, न माया हाथ लगेगी न स्वस्वरूप स्तिथि होगी, अतः जगत से निराश होकर अखंड वैराग्ये करो|
स्वारथ का सब कोई सगा, सारा ही जग जान |
बिन स्वारथ आदर करे, सो नर चतुर सुजान ||
स्वार्थ के ही सब मित्र हैं, सरे संसार की येही दशा समझलो| बिना स्वार्थ के जो आदर करता है, वही मनुष्य विचारवान - बुद्धिमान है |
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