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<Poem>उपजायें तो क्या उपजायें
चहुं ओर पसर गई है
खरपतवार
रसायनों ने भस्म कर दी है
ऊर्वरता
आत्मीयता मुक्त हो रहे है खेत।

उपजायें तो क्या उपजायें
धरती में गहरें
जा पैठा है जल
कभी-कभार होती है
बिजली के तारों में
झनझनाहट
धोरें में ही
दम तोड़ देता है
चुल्लू भर पानी।

उपजायें तो क्या उपजायें
बीघों से बिसवों में
बटते जा रहे है खेत
सुईं की नोक भर
जमीन के लिए
कुनबे रच रहे है
कुरूक्षैत्र की साज़िश।</Poem>
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