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कहो दु:ख / वाज़दा ख़ान

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कहो दु:ख
मैं वो लिखी इबारत मिटा दूं
जो तुमने रूह की जिस्म पर
उकेरी थी
मेरे लाख ना चाहने के बावजूद
तुम अपनी ड्यूटी पर थे
पीछे हटना तुम्हें गवारा न था
और मुझे तुम्हारा रहना
नागवार लगना
लेकिन तुम न माने अमिट.
मिटा रही हूं अब
उन्हें सदियों से
वो मिटाने को नहीं आते
मेरे हाथ, लहूलुहान हो जाते
इसी उम्मीद में
शायद तुम कभी मुझमें से निकलकर
मेरे सामने खड़े हो जाओ
कम से कम
पूछ तो सकूंगी तुमसे
कैसे हो दुख
अब तो थोड़ा मुझे
हंसने दो.
</poem>
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