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{{KKRachna
|रचनाकार=रहीम
|अनुवादक=
|संग्रह=रहीम दोहावली
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रहिमन रहिबो व भलो जौ लौं सील समूच । <BR/>समूच। सील ढील जब देखिए, तुरन्त कीजिए कूच ॥ 202 ॥ <BR/><BR/>कूच॥202॥
रहिमन पैंडा प्रेम को, निपट सिलसिली गैल । <BR/>गैल। बिछलत पांव पिपीलिका, लोग लदावत बैल ॥ 203 ॥ <BR/><BR/>बैल॥203॥
रहिमन ब्याह बियाधि है, सकहु तो जाहु बचाय । <BR/>बचाय। पायन बेड़ी पड़त है, ढोल बजाय बजाय ॥ 204 ॥ <BR/><BR/>बजाय॥204॥
रहिमन प्रिति सराहिए, मिले होत रंग दून । <BR/>दून। ज्यों जरदी हरदी तजै, तजै सफेदी चून ॥ 205 ॥ <BR/><BR/>चून॥205॥
रहिमन तब लगि ठहरिए, दान मान, सम्मान । <BR/>सम्मान। घटत मान देखिए जबहि, तुरतहिं करिय पयान ॥ 206 ॥ <BR/><BR/>पयान॥206॥
राम नाम जान्या नहीं, जान्या सदा उपाधि । <BR/>उपाधि। कहि रहीम तिहि आपनो, जनम गंवायो बादि ॥ 207 ॥ <BR/><BR/>बादि॥207॥
रहिमन जगत बड़ाई की, कूकुर की पहिचानि । <BR/>पहिचानि। प्रीति कैर मुख चाटई, बैर करे नत हानि ॥ 208 ॥ <BR/><BR/>हानि॥208॥
सबै कहावै लसकरी सब लसकर कहं जाय । <BR/>जाय। रहिमन सेल्ह जोई सहै, सो जागीरें खाय ॥ 209 ॥ <BR/><BR/>खाय॥209॥
रहिमन करि सम बल नहीं, मानत प्रभु की थाक । <BR/>थाक। दांत दिखावत दीन है, चलत घिसावत नाक ॥ 210 ॥ <BR/><BR/>नाक॥210॥
रहिमन छोटे नरन सों, होत बड़ों नहिं काम । <BR/>काम। मढ़ो दमामो ना बने, सौ चूहे के चाम ॥ 211 ॥ <BR/><BR/>चाम॥211॥
रहिमन प्रीत न कीजिए, जस खीरा ने कीन । <BR/>कीन। ऊपर से तो दिल मिला, भीतर फांके तीन ॥ 212 ॥ <BR/><BR/>तीन॥212॥
रहिमन धोखे भाव से, मुख से निकसे राम । <BR/>राम। पावत मूरन परम गति, कामादिक कौ धाम ॥ 213 ॥ <BR/><BR/>धाम॥213॥
रहिमन मनहि लगई कै, देखि लेहु किन कोय । <BR/>कोय। नर को बस करिबो कहा, नारायन बस होय ॥ 214 ॥ <BR/><BR/>होय॥214॥
रहिमन असमय के परे, हित अनहित है जाय । <BR/>जाय। बधिक बधै भृग बान सों, रुधिरै देत बताय ॥ 215 ॥ <BR/><BR/>बताय॥215॥
लोहे की न लोहार की, रहिमन कही विचार । <BR/>विचार। जो हानि मारै सीस में, ताही की तलवार ॥ 216 ॥ <BR/><BR/>तलवार॥216॥
रहिमन जिह्वा बावरी, कहिगै सरग पाताल । <BR/>पाताल। आपु तो कहि भीतर रही, जूती खात कपाल ॥ 217 ॥ कपाल॥217॥
रहिमन निज मन की विथा, मन ही राखो गोय । <BR/>गोय। सुनि अठिलै है लोग सब, बांटि न लैहे कोय ॥ 218 ॥ <BR/><BR/>कोय॥218॥
रहिमन जाके बाप को, पानी पिअत न कोय । <BR/>कोय। ताकी गैर अकास लौ, क्यों न कालिमा होय ॥ 219 ॥ <BR/><BR/>होय॥219॥
रहिमन उजली प्रकृति को, नहीं नीच को संग । <BR/>संग। करिया वासन कर गहे, कालिख लागत अंग ॥ 220 ॥ <BR/><BR/>अंग॥220॥
रहिमन कठिन चितान ते, चिंता को चित चेत । <BR/>चेत। चिता दहति निर्जीव को, चिंता जीव समेत ॥ 221 ॥ <BR/><BR/>समेत॥221॥
रहिमन विद्या बुद्धि नहीं, नहीं धरम जस दान । <BR/>दान। भू पर जनम वृथा धरै, पसु बिन पूंछ विषान ॥ 222 ॥ <BR/><BR/>विषान॥222॥
रहिमन चुप ह्वै बैठिए, देखि दिनन को फेर । <BR/>फेर। जब नीकै दिन आइहैं, बनत न लगिहैं बेर ॥ 223 ॥ <BR/><BR/>बेर॥223॥
रहिमन खोजे ऊख में, जहां रसनि की खानि । <BR/>खानि। जहां गांठ तहं रस नहीं, यही प्रीति में हानि ॥ 224 ॥ <BR/><BR/>हानि॥224॥
रहिमन को कोउ का करै, ज्वारी चोर लबार । <BR/>लबार। जो पत राखन हार, माखन चाखन हार ॥ 225 ॥ <BR/><BR/>हार॥225॥
रहिमन वे नर मर चुके, जो कहुं मांगन जांहि । <BR/>जांहि। उनते पहिले वे मुए, जिन मुख निकसत नाहिं ॥ 226 ॥ <BR/><BR/>नाहिं॥226॥
रहिमन कबहुं बड़ेन के, नाहिं गरब को लेस । <BR/>लेस। भार धरे संसार को, तऊ कहावत सेस ॥ 227 ॥ <BR/><BR/>सेस॥227॥
रहिमन वहां न जाइए, जहां कपट को हेत । <BR/>हेत। हम तन ढारत ढेकुली, सींचत अपनो खेत ॥ 228 ॥ <BR/><BR/>खेत॥228॥
रहिमन रिस सहि तजत नहिं, बड़े प्रीति की पौरि । <BR/>पौरि। मूकन भारत आवई, नींद बिचारी दौरि ॥ 229 ॥ <BR/><BR/>दौरि॥229॥
रहिमन ओछे नरन सों, बैर भलो न प्रीति । <BR/>प्रीति। काटे चाटे स्वान के, दुहूं भांति विपरीति ॥ 230 ॥ <BR/><BR/>विपरीति॥230॥
रहिमन भेषज के किए, काल जीति जो जात । <BR/>जात। बड़े-बड़े समरथ भये, तौ न कोउ मरि जात ॥ 231 ॥ <BR/><BR/>जात॥231॥
रहिमन जग जीवन बड़े, काहु न देखे नैन । <BR/>नैन। जाय दसानन अछत ही, कपि लागे गथ लैन ॥ 232 ॥ <BR/><BR/>लैन॥232॥
रहिमन पानी राखिए, बिनु पानी सब सून । <BR/>सून। पानी भए न ऊबरैं, मोती मानुष चून ॥ 233 ॥ <BR/><BR/>चून॥233॥
रहिमन बहु भेषज करत, ब्याधि न छांड़त साज । <BR/>साज। खग मृग बसत अरोग बन, हरि अनाथ के नाथ ॥ 234 ॥ <BR/><BR/>नाथ॥234॥
रहिमन तीन प्रकार ते, हित अनहित पहिचानि । <BR/>पहिचानि। पर बस परे, परोस बस, परे मामिला जानि ॥ 235 ॥ <BR/><BR/>जानि॥235॥
पांच रूप पांडव भए, रथ बाहक नलराज । <BR/>नलराज। दुरदिन परे रहीम कहि, बड़े किए घटि काज ॥ 236 ॥ <BR/><BR/>काज॥236॥
समय परे ओछे वचन, सबके सहै रहीम । <BR/>रहीम। सभा दुसासन पट गहै, गदा लिए रहे भीम ॥ 237 ॥ <BR/><BR/>भीम॥237॥
रहिमन जा डर निसि पैर, ता दिन डर सब कोय । <BR/>कोय। पल पल करके लागते, देखु कहां धौ होय ॥ 238 ॥ <BR/><BR/>होय॥238॥
रहिमन रहिला की भले, जो परसै चितलाय । <BR/>चितलाय। परसत मन मैला करे सो मैदा जरि जाय ॥ 239 ॥ <BR/><BR/>जाय॥239॥
रहिमन यह तन सूप है, लीजै जगत पछोर । <BR/>पछोर। हलुकन को उड़ि जान है, गुरुए राखि बटोर ॥ 240 ॥ <BR/><BR/>बटोर॥240॥
रहिमन गली है साकरी, दूजो ना ठहराहिं । <BR/>ठहराहिं। आपु अहै तो हरि नहिं, हरि तो आपुन नाहिं ॥ 241 ॥ <BR/><BR/>नाहिं॥241॥
स्वारथ रचत रहीम सब, औगुनहूं जग मांहि । <BR/>मांहि। बड़े बड़े बैठे लखौ, पथ पथ कूबर छांहि ॥ 242 ॥ <BR/><BR/>छांहि॥242॥
संपति भरम गंवाइ कै, हाथ रहत कछु नाहिं । <BR/>नाहिं। ज्यों रहीम ससि रहत है, दिवस अकासहुं मांहि ॥ 243 ॥ <BR/><BR/>मांहि॥243॥
सर सूखै पंछी उड़ै, औरे सरन समाहिं । <BR/>समाहिं। दीन मीन बिन पंख के, कहु रहीम कहं जाहिं ॥ 244 ॥ <BR/><BR/>जाहिं॥244॥
स्वासह तुरिय जो उच्चरै, तिय है निश्चल चित्त । <BR/>चित्त। पूत परा घर जानिए, रहिमन तीन पवित्त ॥ 245 ॥ <BR/><BR/>पवित्त॥245॥
साधु सराहै साधुता, जती जोखिता जान । <BR/>जान। रहिमन सांचे सूर को, बैरी करे बखान ॥ 246 ॥ <BR/><BR/>बखान॥246॥
संतत संपति जानि कै, सबको सब कुछ देत । <BR/>देत। दीन बन्धु बिन दीन की, को रहीम सुधि लेत ॥ 247 ॥ <BR/><BR/>लेत॥247॥
ससि की शीतल चांदनी, सुन्दर सबहिं सुहाय । <BR/>सुहाय। लगे चोर चित में लटी, घटि रहीम मन आय ॥ 248 ॥ <BR/><BR/>आय॥248॥
सीत हरत तम हरत नित, भुवन भरत नहि चूक । <BR/>चूक। रहिमन तेहि रवि को कहा, जो घटि लखै उलूक ॥ 249 ॥ <BR/><BR/>उलूक॥249॥
ससि सुकेस साहस सलिल, मान सनेह रहीम । <BR/>रहीम। बढ़त बड़त बढ़ि जात है, घटत घटत घटि सीम ॥ 250 ॥ <BR/><BR/>सीम॥250॥
यह न रहीम सराहिए, लेन देन की प्रीति । <BR/>प्रीति। प्रानन बाजी राखिए, हार होय कै जीति ॥ 251 ॥ <BR/><BR/>जीति॥251॥
ये रहीम दर दर फिरहिं, मांगि मधुकरी खाहिं । <BR/>खाहिं। यारो यारी छोड़िए, वे रहीम अब नाहिं ॥ 252 ॥ <BR/><BR/>नाहिं॥252॥
यों रहीम तन हाट में, मनुआ गयो बिकाय । <BR/>बिकाय। ज्यों जल में छाया परे, काया भीतर नाय ॥ 253 ॥ <BR/><BR/>नाय॥253॥
रजपूती चांवर भरी, जो कदाच घटि जाय । <BR/>जाय। कै रहीम मरिबो भलो, कै स्वदेस तजि जाय ॥ 254 ॥ <BR/><BR/>जाय॥254॥
यों रहीम सुख होत है, बढ़त देखि निज गोत । <BR/>गोत। ज्यों बड़री अंखियां निरखि अंखियन को सुख होत ॥ 255 ॥ <BR/><BR/>होत॥255॥
हित रहीम इतनैं करैं, जाकी जिती बिसात । <BR/>बिसात। नहिं यह रहै न व रहे, रहै कहन को बात ॥ 256 ॥ <BR/><BR/>बात॥256॥
सबको सब कोऊ करैं, कै सलाम कै राम । <BR/>राम। हित रहीम तब जानिए, जब कछु अटकै काम ॥ 257 ॥ <BR/><BR/>काम॥257॥
रौल बिगाड़े राज नैं, मौल बिगाड़े माल । <BR/>माल। सनै सनै सरदार की, चुगल बिगाड़े चाल ॥ 258 ॥ <BR/><BR/>चाल॥258॥
रहिमन कहत स्वपेट सों, क्यों न भयो तू पीठ । <BR/>पीठ। रीते अनरीतैं करैं, भरै बिगारैं दीठ ॥ 259 ॥ <BR/><BR/>दीठ॥259॥
होत कृपा जो बड़ेन की, सो कदापि घट जाय । <BR/>जाय। तो रहीम मरिबो भलो, यह दुख सहो न जाय ॥ 260 ॥ <BR/><BR/>जाय॥260॥
वे रहीम नर धन्य हैं, पर उपकारी अंग । <BR/>अंग। बाटन वारे को लगे, ज्यों मेहंदी को रंग ॥ 261 ॥ <BR/><BR/>रंग॥261॥
होय न जाकी छांह ढिग, फल रहीम अति दूर । <BR/>दूर। बढ़िहू सो बिन काज की, तैसे तार खजूर ॥ 262 ॥ <BR/><BR/>खजूर॥262॥
हरी हरी करुना करी, सुनी जो सब ना टेर । <BR/>टेर। जग डग भरी उतावरी, हरी करी की बेर ॥ 263 ॥ <BR/><BR/>बेर॥263॥
अनकिन्ही बातें करै, सोवत जागै जोय । <BR/>जोय। ताहि सिखाय जगायबो, रहिमन उचित न होय ॥ 264 ॥ <BR/><BR/>होय॥264॥बिधना यह जिय जानिकै, सेसहि दिए न कान । <BR/>कान। धरा मेरु सब डोलिहैं, तानसेन के तान ॥ 265 ॥ <BR/><BR/>तान॥265॥
एक उदर दो चोंच है, पंछी एक कुरंड । <BR/>कुरंड। कहि रहीम कैसे जिए, जुदे जुदे दो पिंड ॥ 266 ॥ <BR/><BR/>पिंड॥266॥
जो रहीम गति दीप की, सुत सपूत की सोय । <BR/>सोय। बड़ो उजेरो तेहि रहे, गए अंधेरो होय ॥ 267 ॥ <BR/><BR/>होय॥267॥
चिंता बुद्धि परखिए, टोटे परख त्रियाहि । <BR/>त्रियाहि। सगे कुबेला परखिए, ठाकुर गुनो किआहि ॥ 268 ॥ <BR/><BR/>किआहि॥268॥
चाह गई चिन्ता मिटी, मनुआ बेपरवाह । <BR/>बेपरवाह। जिनको कछु न चाहिए, वे साहन के साह ॥ 269 ॥ <BR/><BR/>साह॥269॥
जैसी जाकी बुद्धि है, तैसी कहै बनाय । <BR/>बनाय। ताको बुरा न मानिए, लेन कहां सो जाय ॥ 270 ॥ <BR/><BR/>जाय॥270॥
खैंचि चढ़नि ढीली ढरनि, कहहु कौन यह प्रीति । <BR/>प्रीति। आजकाल मोहन गही, बसंदिया की रीति ॥ 271 ॥ <BR/><BR/>रीति॥271॥
कौन बड़ाई जलधि मिलि, गंग नाम भो धीम । <BR/>धीम। काकी महिमा नहीं घटी, पर घर गए रहीम ॥ 272 ॥ <BR/><BR/>रहीम॥272॥
जो रहीम जग मारियो, नैन बान की चोट । <BR/>चोट। भगत भगत कोउ बचि गए, चरन कमल की ओट ॥ 273 ॥ <BR/><BR/>ओट॥273॥
कदली सीप भुजंग मुख, स्वाति एक गुन तीन । <BR/>तीन। जैसी संगती बैठिए, तैसोई फल दीन ॥ 274 ॥ <BR/><BR/>दीन॥274॥
पिय वियोग ते दुसह दुख, सुने दुख ते अन्त । <BR/>अन्त। होत अन्त ते फल मिलन, तोरि सिधाए कन्त ॥ 275 ॥ <BR/><BR/>कन्त॥275॥
आदि रूप की परम दुति, घट घट रही समाई । <BR/>समाई। लघु मति ते मो मन रमन, अस्तुति कही न जाई ॥ 276 ॥ <BR/><BR/>जाई॥276॥
नैन तृप्ति कछु होत है, निरखि जगत की भांति । <BR/>भांति। जाहि ताहि में पाइयत, आदि रूप की कांति ॥ 277 ॥ <BR/><BR/>कांति॥277॥
उत्तम जाती ब्राह्ममी, देखत चित्त लुभाय । <BR/>लुभाय। परम पाप पल में हरत, परसत वाके पाय ॥ 278 ॥ <BR/><BR/>पाय॥278॥
परजापति परमेशवरी, गंगा रूप समान । <BR/>समान। जाके अंग तरंग में, करत नैन अस्नान ॥ 279 ॥ <BR/><BR/>अस्नान॥279॥
रूप रंग रति राज में, खत रानी इतरान । <BR/>इतरान। मानो रची बिरंचि पचि, कुसुम कनक में सान ॥ 280 ॥ <BR/><BR/>सान॥280॥
परस पाहन की मनो, धरे पूतरी अंग । <BR/>अंग। क्यों न होय कंचन बहू, जे बिलसै तिहि संग ॥ 281 ॥ <BR/><BR/>संग॥281॥
कबहुं देखावै जौहरनि, हंसि हंसि मानकलाल । <BR/>मानकलाल। कबहुं चखते च्वै परै, टूटि मुकुत की माल ॥ 282 ॥ <BR/><BR/>माल॥282॥
जद्यपि नैननि ओट है, बिरह चोट बिन घाई । <BR/>घाई। पिय उर पीरा न करै, हीरा-सी गड़ि जाई ॥ 283 ॥ <BR/><BR/>जाई॥283॥
कैथिनि कथन न पारई, प्रेम कथा मुख बैन । <BR/>बैन। छाती ही पाती मनों, लिखै मैन की सैन ॥ 284 ॥ <BR/><BR/>सैन॥284॥
बरूनि बार लेखिनि करै, मसि का जरि भरि लेई । <BR/>लेई। प्रेमाक्षर लिखि नैन ते, पिये बांचन को देई ॥ 285 ॥ <BR/><BR/>देई॥285॥
पलक म टारै बदन ते, पलक न मारै मित्र । <BR/>मित्र। नेकु न चित ते ऊतरै, ज्यों कागद में चित्र ॥ 286 ॥ <BR/><BR/>चित्र॥286॥सोभित मुख ऊपर धरै, सदा सुरत मैदान । <BR/>मैदान। छूरी लरै बंदूकची, भौहें रूप कमान ॥ 287 ॥ <BR/><BR/>कमान॥287॥
कामेश्वर नैननि धरै, करत प्रेम की केलि । <BR/>केलि। नैन माहिं चोवा मटे, छोरन माहि फुलेलि ॥ 288 ॥ <BR/><BR/>फुलेलि॥288॥
करै न काहू की सका, सकिकन जोबन रूप । <BR/>रूप। सदा सरम जल ते मरी, रहे चिबुक कै रूप ॥ 289 ॥ <BR/><BR/>रूप॥289॥
करै गुमान कमागरी, भौंह कमान चढ़ाइ । <BR/>चढ़ाइ। पिय कर महि जब खैंचई, फिर कमान सी जाइ ॥ 290 ॥ <BR/><BR/>जाइ॥290॥
सीस चूंदरी निरख मन, परत प्रेम के जार । <BR/>जार। प्रान इजारै लेत है, वाकी लाल इजार ॥ 291 ॥ <BR/><BR/>इजार॥291॥
जोगनि जोग न जानई, परै प्रेम रस माहिं । <BR/>माहिं। डोलत मुख ऊपर लिए, प्रेम जटा की छांहि ॥ 292 ॥ <BR/><BR/>छांहि॥292॥
भाटिन भटकी प्रेम की, हर की रहै न गेह । <BR/>गेह। जोवन पर लटकी फिरै, जोरत वरह सनेह ॥ 293 ॥ <BR/><BR/>सनेह॥293॥
भटियारी उर मुंह करै, प्रेम पथिक की ठौर । <BR/>ठौर। धौस दिखावै और की, रात दिखावै और ॥ 294 ॥ <BR/><BR/>और॥294॥
पाटम्बर पटइन पहिरि, सेंदुर भरे ललाट । <BR/>ललाट। बिरही नेकु न छाड़ही, वा पटवा की हाट ॥ 295 ॥ <BR/><BR/>हाट॥295॥
सजल नैन वाके निरखि, चलत प्रेम सर फूट । <BR/>फूट। लोक लाज उर धाकते, जात समक सी छूट ॥ 296 ॥ <BR/><BR/>छूट॥296॥
राज करत रजपूतनी, देस रूप को दीप । <BR/>दीप। कर घूंघट पर ओट कै, आवत पियहि समिप ॥ 297 ॥ <BR/><BR/>हियरा भरै तबाखिनी, हाथ न लावन देत । <BR/>सुखा नेक चटवाइ कै, हड़ी झाटि सब देत ॥ 298 ॥ <BR/><BR/>समिप॥297॥
हाथ लिए हत्या फिरे, जोबन गरब हुलास। धरै कसाइन रैन दिन, बिरही रकत पिपास॥299॥ गाहक सो हंसि बिहंसि कै, करत बोल अरु कौल । <BR/>कौल। पहिले आपुन मोल कहि, कहत दही को मोल ॥ 300 ॥ <BR/>मोल॥300॥<BR/poem>