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और मन टटोलने का क़ायदा अब भी उतना प्रचलित नहीं
लाखों वर्षो में मनुष्‍य के मस्तिष्‍क का विकास इस दिशा में बेकार ही गया है
 
जब भी
नाभि से दाना चुगती है होठों की चिडिया
तो डबडबा जाती हैं उसकी आँखें
कुछ प्रेम कुछ पछतावे से
 
 
प्राक्-ऐतिहासिक तथ्‍य की तरह याद आता है कि यह भी एक मनुष्‍य ही है
इसे अब प्रेम चाहिए
लानतों से भरा कोई पछतावा नहीं
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