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बुनना / महेश वर्मा

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यह तुम्हीं हो जो बारम्बार मुझे देह की तरह बुनती हो
इसीलिये मुझमें यह सिफत आ गई है कि मुझे
अंतिम गांठ तक उधाड़ा जा सकता है

(अजीब बात है हाथ की बुनाई में कि इस गठान को कहीं फंदा कहते
हैं कहीं घर. बच्चे का स्वेटर अस्सी का घर का, एक सौ बीस फंदे का स्त्री का कार्डिगन.
मोजे और दस्ताने कम घरों में)

रति में और विलाप में
कहीं भी मुझे बुनकर मुकम्मल कर देती हो,
बस में बैठी हुई
उदासी में बैठी हुई

बाकी के समय
जैसे खाली दोपहर भी मुझे तजना नहीं
अपनी उधेड़बुन में रखना कि जैसे कुछ घर बुनना
कुछ फंदे खोल देना.
</poem>
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