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|रचनाकार=सरवर आलम राज़ 'सरवर'
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|संग्रह=एक पर्दा जो उठा / सरवर आलम राज़ 'सरवर'
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<poem>
यूँ आफ़्ताब-ए-शौक़ शब-ए-ग़म में ढल गया
जैसे शबाब दूर से बच कर निकल गया!

दिल सोज़-ए-आशिक़ी से सर-ए-शाम जल गया
था ज़िन्दगी में एक ही कांटा, निकल गया

तुम आए थे तो एक ज़माना था साज़गार
तुम क्या गए कि एक ज़माना बदल गया!

हालत पे मिरी अह्ल-ए-ख़िरद इस क़दर हँसे
जितना था उनका शौक़-ए-तमाशा निकल गया!

नादां थे हम जो ख़्वाहिश-ए-दुनिया किया किए
नादां था दिल जो देख के दुनिया मचल गया

हम शेह्र-ए-आरज़ू में भटकते फिरा किए
दिल था हमारा एक ही नादाँ, बहल गया!

क्यों हर सवाल मेरा सवाल-ए-ग़लत हुआ
क्यों हर जवाब तेरा सियासत में ढल गया?

:’ऎ दोस्त! आ भी जा कि मैं तस्दीक़ कर सकूँ"
सब कह रहे हैं मौसम-ए-हिज्राँ बदल गया!

"सरवर"! तिरे ख़ुलूस-ओ-मुहब्बत का क्या करें?
सिक्का ही इक नया सर-ए-बाज़ार चल गया!
</poem>
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