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हिज्जे
मेहनत से सुलझाती हैं भीतर तक उलझे बाल<br>
कर देती हैं चोटी-पाटी<br>
और डांटती डाँटती भी जाती हैं कि री पगली तू<br>
किस धुन में रहती है<br>
कि बालों की गांठें गाँठें भी तुझसे<br>
ठीक से निकलती नहीं।<br><br>
बालों के बहाने<br>
वे गांठें गाँठें सुलझाती हैं जीवन की<br>
करती हैं परिहास, सुनाती हैं किस्से<br>
और फिर हँसती-हँसाती<br>
जिसके पसर जाते हैं साये<br>
और गर्भ से रिसते हैं महीनों चुपचाप–<br>
चालीस के आसपास के अकेलेपन के उन<br>
काले-कत्थई चकत्तों का<br>
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