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|रचनाकार=मीर तक़ी 'मीर'
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<poem>
गुल को महबूब में क़यास किया
फ़र्क़ निकला बहोत जो बास किया
गुल दिल ने हम को महबूब में क़यास किया<br>मिसाल-ए-आईनाफ़र्क़ निकला बहोत जो बास एक आलम से रू-शिनास किया<br><br>
दिल कुछ नहीं सूझता हमें उस बिनशौक़ ने हम को मिसाल-ए-आईना<br>एक आलम से रूबे-शिनास हवास किया<br><br>
कुछ नहीं सूझता हमें उस बिन<br>सुबह तक शमा सर को ढुँढती रहीशौक़ क्या पतंगे ने हम को बे-हवास इल्तेमास किया<br><br>
सुबह तक शमा सर को ढुँढती रही<br>क्या पतंगे ने इल्तेमास किया<br><br> ऐसे वहाशी कहाँ हैं अए ख़ुबाँ<br>'मीर' को तुम ने अबस उदास किकिया</poem>
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