भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
ठीक धरती के किनारों पर
उठे काले बनैले हाथी
चले आ रहे थे इध्र इधर ही
कोई घूर रहा था बादलों के बीच
मेमने का मासूम चेहरा
पिफर मेरा घर-बार
दह जायेगी मां की पराती धुनें
छठ का पफलसूपफलसूप, कोपड़ पफूटता फूटता बांस
फिर भी न दिखेगा तुम्हारी नींद में।
</poem>
Delete, Mover, Protect, Reupload, Uploader, प्रबंधक
35,131
edits