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Kavita Kosh से
ठीक धरती के किनारों पर
उठे काले बनैले हाथी
चले आ रहे थे इध्र इधर ही
कोई घूर रहा था बादलों के बीच
मेमने का मासूम चेहरा
पिफर मेरा घर-बार
दह जायेगी मां की पराती धुनें
छठ का पफलसूपफलसूप, कोपड़ पफूटता फूटता बांस
फिर भी न दिखेगा तुम्हारी नींद में।
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