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|रचनाकार=प्रभुदयाल श्रीवास्तव
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<poem>
भालू चीता शेर सियार सब,
रहने आये शहर में|
बोले’अब तो सभी रहेंगे,
यहीं आपके घर में|’

तरुवर सारे काट लिये हैं ,
नहीं बचे जंगल हैं|
जहाँ देखिये वहीं दिख रहे,
बंगले और महल हैं|
अब तो अपना नहीं ठिकाना,
लटके सभी अधर में|
भालू चीता शेर सियार सब,
रहने आये शहर में|

जगह जगह मैदान बन गये,
नहीं बची हरियाली|
जहाँ देखिये वहीं आदमी,
जगह नहीं है खाली|
अब तो हम हैं बिना सहारे,
भटके डगर डगर में|
भालू चीता शेर सियार सब,
रहने आये शहर में|

पता नहीं कैसा विकास का ,
घोड़ा यह दौड़ाया|
का‍ट छांट कर दिया,वनों का
ही संपूर्ण सफाया|
बोलो बोलो जांयं कहां अब,
भर गरमी दुपहर में|
भालू चीता शेर सियार सब ,
रहने आये शहर में|
</poem>
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