भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
<poem>
मम्मी मुझको नहीं खेलने, देती है अब घर घूला|
ना ही मुझे बनाने देती ,गोबर मिट्टी का चूल्हा|गपई समुद्दर क्या होता है,नहीं जानता अब कोई|
गिल्ली डंडे का टुल्ला तो, बचपन बिल्कुल ही भूला|
अब तो सावन खेल रहा है ,रात और दिन टी वी से|
आम नीम की डालों पर अब, कहीं नहीं दिखता झूला|
अब्ब्क दब्बक दांयें दीन का ,बिसरा खेल जमाने से|अटकन चटकन दही चटाकन ,लगता है भूला भूला|
न ही झड़ी लगे वर्षा की, न ही चलती पुरवाई|
मौसम हुआ आज जादूगर ,वक्त हुआ लगड़ा लूला|
ऐसी चली हवा पश्चिम की, हम खुद को ही भूल गये|
गुड़िया अब ये नहीं जानती, क्या होता है रमतूला|</poem>