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हृदय का दृष्टि दोष / प्रांजल धर

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<poem>
भावनाओं पर रेलगाड़ी दौड़ा दी गयी,
पटरियाँ सुन्न हो गयीं मन की
बिखर गये विचार
जैसे नदी अपने मुहानों पर बिखर जाती है,
फिर सागर में उतर जाती लुप्त होकर.
लाल गुलाब की अधखिली कली से
चिपकी ओस की बूँद अब बनावटी लगती है,
शायद दर्शन-शक्ति को लकवा मार गया है.
इन्द्रियों का सारथी
दुनिया से हार गया है.

महसूस ही नहीं होती प्रकृति;
आकृष्ट नहीं करता सौन्दर्य;
आस्वादन नहीं होता रस का;
और कोई अहसास भी नहीं
किसी प्रतीक, रस या बिम्ब का!
अम्बर का सन्नाटा नापती दृष्टि
बगल वाले आदमी की इच्छा तक
नहीं भाँप पाती;
यह हृदय का दूर दृष्टि दोष है
इसीलिए आकाश ताकने में बड़ा आराम मिलता है
लेकिन पूरी की पूरी धरती
जहन्नुम नज़र आती है,
और कोई भी आँख
धरा की पीर नहीं देख पाती है!
</poem>
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