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टैगोर हिल / प्रियदर्शन

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एक खड़खड़ाती साइकिल याद आती है
एक सूना मैदान
दो पांव पैडल मारते हुए
कैरियर में दबी दो किताबें
और किसी रंगीन चादर की तरह बिछा हुआ एक पूरा शहर
जिस पर किसी शरारती बच्चे की तरह धमा चौकड़ी मचाते
घूमा करते थे हम
ठीक है कि यह नॉस्टैल्जिया है
ठीक है कि अपने पुराने शहर, पुराने घर और पुराने प्रेम पर
सैकड़ों-हजारों नहीं, लाखों कविताएं लिख और छोड़ गए हैं कवि
यानी मैं ऐसा कुछ नया नहीं कर रहा
जिस पर गुमान करूं, जिसे अनूठा बताऊं
लेकिन कोई तो बात है
कि जब भी कुछ लिखने बैठता हूं
वे पुराने दिन आकर जैसे कलम छीन लेना चाहते हैं
उन संवलाए पठारों के कालातीत पत्थर
कुछ इस तरह पुकारते हैं
जैसे उनकी हजारों या लाखों बरस की
उम्र का एक-एक लम्हा उनकी छाती में दर्ज हो
एक-एक कदम के निशान, एक-एक आहट की आवाज़
और उनकी तहों में दबा कोई कागज फड़फड़ाता हुआ बताता हो
कि उनके पास मेरे भी कुछ लम्हे बकाया हैं
कुछ सांसें, कुछ स्पंदन,
और अब वे यह सारा कर्ज सूद समेत वापस लेना चाहते हों
जबकि मैं बेखबर,
मुझे ठीक से पता भी न था
कि इन बेजान लगते पहाड़ों की इतनी गाढ़ी स्मृति होती है
कि इन पत्थरों के भीतर भी होता है याद का वह हिलता हुआ जल
जो कभी मुझे याद दिला जाएगा मेरा बीता हुआ कल
मैं तो बस रामकृष्ण मिशन की लाइब्रेरी से निकलता
और अनजाने चला जाता
टैगोर हिल के ऊपर बनी उस छतरीनुमा संरचना के नीचे
जहां से सूरज का डूबना जितना सुंदर लगता था
उतना ही बादलों का बिखरना भी।
तब मुझे क्या पता था कि
बीता हुआ बीतता नहीं लौट कर आता है
कि पुराने पत्थरों की बेआवाज़ दुनिया
सारी आवाजों, सारी निशानियों को बचाए रखती है
और ठीक उसी वक़्त सामने आकर खड़ी हो जाती है
जब आप भविष्य के आईने में अपनी शक्ल खोजना चाहते हैं
और पाते हैं कि यह शीशा तो अतीत के फ्रेम में कसा हुआ है।
</poem>
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