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नई मंज़िल / कुमार मुकुल

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दूसरी मंजिल की छत पर
डूब चुके सूर्य की
ठंडी होती सरल गंध में
अतराना अच्छा लगता है
आगे नाले पार का
गेहूं की बालियों से पटा
भू-भाग है
बहुमंजिलो अपार्टमेंट यहां सिर उठा रहे हैं
इमारतों की ऊंची टंकियों पर
गिद्ध बैठे हैं

प्रतीक चिन्हों की तरह स्थ‍िर
क्यों बैठे हें गिद्ध
क्या वो
मुआयना कर रहे हैं शहर का
या कट गये ताड वृक्षों की जगह
नयी मंजिल
तलाश ली है उन्हेांने।
1996
</poem>
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