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Kavita Kosh से
झोपड़ियों की चर्चा है
रक्षक ही भक्षक बन बैठे है
खुले आम दरबारों में।
कंकर फँसा निगाहों में
बनावटी है मीठी वाणी
किस पतंग की डोर कटी है