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|संग्रह=म्हारै पांती रा सुपना / राजू सारसर ‘राज’
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<poem>
परखै बिना निज नैं
करयां बिना
सगती रो संचै
कब लग जगैली
आ कांपती लौ
आंध्यां’रै डर सूं।
कब लग
होसी खेळी-खेळी
सूनी आंख्यां सूं
नि’जळ सूक’र
तिड़कता हरियल सुपनां
जिनगाणीं जियां बिनां।
पड़ाव दर पड़ाव
घड़ी री सुई रै माथै
टिक-टिक, टिक-टिक
मजलां कानी
टुरै बिना
जूझ्यां बिनां
सै’ज ई
कठै जोवै सोनळियौ काल
जोतक रा पतरां
तास रा पतां
अखबारी विज्ञापनां में।
परजीवी होवणौ
निज रो सुपनौं
अडाणैं धरणौं
है अन्याव निज सूं
भण काल आज अर काल
नैहचौ कर’र चाल
अै भाग-लीकटयां
थारै साथै चाल पड़ैली
बण’र पंथ री
सहजातरी।
देख, अै पांखी
रेत रा कणां में ई
सौध लैवै
जूण रा अंस।
मति बैठ भाग-भरोसै
चेतौ कर गीतोपदेस
बदळाव नीं आवै
कोरी मोरी बातां सूं
की सिद्धान्त तो मंढ
आगै बध
आवण वाळौ कालखंड
थारौ होवैलौ
सांची थारो ई होवैलौ।
</poem>
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