भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

साकेत योगदान

7,055 bytes added, 11:00, 22 जुलाई 2006
किंतु दिनकर आ रहा, क्या सोच है?
उचित ही गुरुजन-निकट संकोच है।
हिम-कणों ने है जिसे शीतल किया,
और सौरभ ने जिसे नव बल दिया,
प्रेम से पागल पवन चलने लगा,
सुमन-रज सर्वांग में मलने लगा!
प्यार से अंचल पसार हरा-भरा,
तारकाएं खींच लाई है धरा।
निरख रत्न हरे गए निज कोष के,
शून्य रंग दिखा रहा है रोष के।
ठौर ठौर प्रभातियां होने लगीं,
अलसता की ग्लानियां धोने लगीं।
कौन भैरव-राग कहता है इसे,
श्रुति-पुटों से प्राण पीते हैं जिसे?
दीखते थे रंग जो धूमिल अभी,
हो गए हैं अब यथायथ वे सभी।
सूर्य के रथ में अरुण हय जुत गए,
लोक के घर-वार ज्यों लिप-पुत गए।
सजग जन-जीवन उठा विश्रांत हो,
मरण जिसको देख जड़-सा भ्रांत हो।
दधिविलोडन, शास्त्रमंथन सब कहीं,
पुलक-पूरित तृप्त तन-मन सब कहीं,
खुल गया प्राची दिशा का द्वार है,
गगन-सागर में उठा क्या ज्वार है!
पूर्व के ही भाग्य का यह भाग है,
या नियति का राग-पूर्ण सुहाग है!
अरुण-पट पहने हुए आह्लाद में,
कौन यह बाला खड़ी प्रसाद में ?
प्रकट-मूरतिमती उषा ही तो नहीं?
कांति-की किरणें उजेला कर रहीं।
यह सजीव सुव्ण की प्रतिमा नई,
आप विधि के हाथ से ढाली गई।
कनक-लतिका भी कमल-सी कोमला,
धन्य है उस कल्प-शिल्पी की कला!
जान पड़ता नेत्र देख बड़े-बड़े-
हीरकों में गोल नीलम हैं जड़े।
पद्मरागों से अधर मानो बने,
मोतियों से दांत निर्मित हैं घने।
और इसका हृदय किससे है बना?
बह हृदय ही है कि जिससे है बना।
प्रेम-पूरित सरस कोमल चित्त से,
तुल्यता की जा सके किस वित्त से?
शाण पर सब अंग मानो चढ़ चुके।
झलकता आता अभी तारुण्य है,
आ गुराई से मिला आरुण्य है!
लोल कुंडल मंडलाकृति गोल हैं,
घन-पटल-से केश, कांत-कपोल हैं।
देखती है जब जिधर यह सुंदरी,
दमकती है दामिनी-सी द्युति-भरी।
हैं करों में भूरि भूरि भलाइयां,
लचक जाती अन्यथा न कलाइयां?
चूड़ियों के अर्थ, जो हैं मणिमयी,
अंग की ही कांति कुंदन बन गई।
एक ओर विशाल दर्पण है लगा,
पार्श्व से प्रतिबिंब जिसमें है जगा।
मंदिरस्था कौन यह देवी भला?
किस कृती के अर्थ है इसकी कला?
स्वर्ग का यह सुमन धरती पर खिला,
नाम है इसका उचित ही 'ऊर्मिला'।
शील-सौरक्ष की तरंगें आ रही,
दिव्य-भाव भाब्धि में हैं ला रही।
 
सौधसिंहद्वार पर अब भी वही,
बांसुरी रस-रागिनी में बज रही।
अनुकरण करता उसीका कीर है,
पंजर स्थित जो सुरम्य शरीर है।
ऊर्मिला ने कीर-सम्मुख दृष्टि की,
या यहां दो खंजनों की सृष्टि की!
मौन होकर कीर तब विस्मित हुआ,
रह गया वह देखता-सा स्थित हुआ!
प्रेम से स प्रेयसी ने तब कहा-
"रे सुभाषी, बोल, चुप क्यों हो रहा?"
पार्श्व से सौमित्रि आ पहुंचे तभी,
और बोले-"लो, बता दूं मैं अभी।
नाक का मोती अधर की कांति से,
बीज दाड़िम का समझ कर भ्रांति से,
देख कर सहसा हुआ शुक मौन है,
सोचता है, अन्य शुक यह कौन है।?
यो वचन कहकर सहास्य विनोद से,
मुग्ध हो सौमित्रि मन के मोद से।
पद्मिनी के पास मत्त मराल-से,
हो गए आकर खड़े स्थिर चाल से।
चारु-चित्रित भित्तियां भी वे बड़ी,
देखती ही रह गई मानो खड़ी।
प्रीति से आवेग मानो आ मिला,
और हार्दिक हास आंखों में खिला।
मुस्करा कर अमृत बरसाती हुई,
रसिकता में सुरस सरसाती हुई,
ऊर्मिला बोली, "अजी, तुम जग गए?
स्वप्न-निधि से नयन कब से लग गए?"
"मोहिनी ने मंत्र पढ़ जब से छुआ,
जागरण रुचिकर तुम्हें जब से हुआ!"
गत हुई संलाप में बहु रात थी,
प्रथम उठने की परस्पर बात थी।
"जागरण है स्वप्न से अच्छा कहीं?"
"प्रेम में कुछ भी बुरा होता नहीं!"
Anonymous user