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[[Category:महाकाव्य]]
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उठे स्वस्थ मनु ज्यों उठता है , क्षितिज बीच अरुणोदय कांत, कांत। लगे देखने लुब्ध नयन से ,
प्रकृति-विभूति मनोहर, शांत।
पाकयज्ञ करना निश्चित कर , लगे शालियों को चुनने, चुनने। उधर वह्नि-ज्वाला भी अपना ,
लगी धूम-पट थी बुनने।
शुष्क डालियों से वृक्षों की ,
अग्नि-अर्चिया हुई समिद्ध।
आहुति के नव धूमगंध से,
नभ-कानन हो गया समृद्ध।
और सोचकर अपने मन में , "जैसे हम हैं बचे हुए- हुए।
क्या आश्चर्य और कोई हो
जीवन-लीला रचे हुए,हुए। "
अग्निहोत्र-अवशिष्ट अन्न कुछ , कहीं दूर रख आते थे, थे।
होगा इससे तृप्त अपरिचित
समझ सहज सुख पाते थे।
दुख का गहन पाठ पढ़कर अब , सहानुभूति समझते थे, थे। नीरवता की गहराई में ,
मग्न अकेले रहते थे।
मनन किया करते वे बैठे , ज्वलित अग्नि के पास वहाँ, वहाँ। एक सजीव, तपस्या जैसे ,
पतझड़ में कर वास रहा।
फिर भी धड़कन कभी हृदय में , होती चिंता कभी नवीन, नवीन। यों ही लगा बीतने उनका ,
जीवन अस्थिर दिन-दिन दीन।
प्रश्न उपस्थित नित्य नये थे , अंधकार की माया में, में। रंग बदलते जो पल-पल में ,
उस विराट की छाया में।
अर्ध प्रस्फुटित उत्तर मिलते , प्रकृति सकर्मक रही समस्त, समस्त। निज अस्तित्व बना रखने में ,
जीवन हुआ था व्यस्त।
तप में निरत हुए मनु,
नियमित-कर्म लगे अपना करने, करने।
विश्वरंग में कर्मजाल के
सूत्र लगे घन हो घिरने।
उस एकांत नियति-शासन में , चले विवश धीरे-धीरे, धीरे। एक शांत स्पंदन लहरों का ,
होता ज्यों सागर-तीरे।
विजन जगत की तंद्रा में , तब चलता था सूना सपना, सपना। ग्रह-पथ के आलोक-वृत वृत्त से ,
काल जाल तनता अपना।
प्रहर, दिवस, रजनी आती थी , चल-जाती संदेश-विहीन, विहीन। एक विरागपूर्ण संसृति में ,
ज्यों निष्फल आंरभ नवीन।
धवल,मनोहर चंद्रबिंब से अंकित , अंकित सुंदर स्वच्छ निशीथ, निशीथ। जिसमें शीतल पावन पवन गा रहा , पुलकित हो पावन उद्गगीथ। उद्गीथ।
नीचे दूर-दूर विस्तृत था , उर्मिल सागर व्यथित, अधीर अधीर। अंतरिक्ष में व्यस्त उसी सा ,
चंद्रिका-निधि गंभीर।
खुलीं उस उसी रमणीय दृश्य में , अलस चेतना की आँखे, आँखें।
हृदय-कुसुम की खिलीं अचानक
मधु से वे भीगी पाँखे।
व्यक्त नील में चल प्रकाश का , कंपन सुख बन बजता था, था। एक अतींद्रिय स्वप्न-लोक का ,
मधुर रहस्य उलझता था।
नव हो जगी अनादि वासना , मधुर प्राकृतिक भूख-समान, समान। चिर-परिचित-सा चाह रहा था ,
द्वंद्व सुखद करके अनुमान।
दिवा-रात्रि या-मित्र वरूण वरुण की
बाला का अक्षय श्रृंगार,
मिलन लगा हँसने जीवन के ,
उर्मिल सागर के उस पार।
तप से संयम का संचित बल,
तृषित और व्याकुल था आज- आज। अट्टाहास कर उठा रिक्त का ,
वह अधीर-तम-सूना राज।
धीर-समीर-परस से पुलकित , विकल हो चला श्रांत-शरीर, शरीर। आशा की उलझी अलकों से ,
उठी लहर मधुगंध अधीर।
मनु का मन था विकल हो उठा , संवेदन से खाकर चोट, चोट। संवेदन जीवन जगती को ,
जो कटुता से देता घोंट।
"आह कल्पना का सुंदर
यह जगत मधुर कितना होता ! सुख-स्वप्नों का दल छाया में ,
पुलकित हो जगता-सोता।
संवेदन का और हृदय का , यह संघर्ष न हो सकता, सकता। फिर अभाव असफलताओं की ,
गाथा कौन कहाँ बकता?
कब तक और अकेले?
कह दो हे मेरे जीवन बोलो? !
किसे सुनाऊँ कथा-कहो मत,
अपनी निधि न व्यर्थ खोलो। "
"तम के सुंदरतम रहस्य,
हे कांति-किरण-रंजित तारा तारा। व्यथित विश्व के सात्विक शीतल बिदु, बिंदु, भरे नव रस सारा।
आतप-तपित तापित जीवन-सुख की , शांतिमयी छाया के देश, देश। हे अनंत की गणना देते , तुम कितना मधुमय संदेश।
आह शून्यते चुप होने में ,
तू क्यों इतनी चतुर हुई?
इंद्रजाल-जननी रजनी तू क्यों,क्यों अब इतनी मधुर हुई?"
"जब कामना सिंधु तट आई , ले संध्या का तारा दीप, दीप। फाड़ सुनहली साड़ी उसकी ,
तू हँसती क्यों अरी प्रतीप?
इस अनंत काले शासन का , वह जब उच्छंखल इतिहास, इतिहास। आँसू औरऔ' तम घोल लिख रही तू , तू सहसा करती मृदु हास।
विश्व कमल की मृदुल मधुकरी , रजनी तू किस कोने से- से। आती चूम-चूम चल जाती ,
पढ़ी हुई किस टोने से।
किस दिंगत रेखा में इतनी , संचित कर सिसकी-सी साँस, साँस। यों समीर मिस हाँफ रही-सी ,
चली जा रही किसके पास।
विकल खिलखिलाती है क्यों तू?
इतनी हँसी न व्यर्थ बिखेर, बिखेर।
तुहिन कणों, फेनिल लहरों में,
मच जावेगी फिर अधेर। अंधेर।
घूँघट उठा देख मुस्कयाती मुस्काती, किसे , ठिठकती-सी आती, आती। विजन गगन में किस किसी भूल सी
किसको स्मृति-पथ में लाती।
रजत-कुसुम के नव पराग-सी , उडा न दे तू इतनी धूल- धूल। इस ज्योत्सना की, अरी बावली ,
तू इसमें जावेगी भूल।
पगली हाँ सम्हाल ले, कैसे छूट पडा़ तेरा अँचल? देख, बिखरती है मणिराजी- ,
अरी उठा बेसुध चंचल।
फटा हुआ था नील वसन क्या ?
ओ यौवन की मतवाली।
देख अकिंचन जगत लूटता , तेरी छवि भोली भाली भाली।
ऐसे अतुल अंनत विभव में ,
जाग पड़ा क्यों तीव्र विराग?
या भूली-सी खोज़ रही कुछ , जीवन की छाती के दागदाग।"
"मैं भी भूल गया हूँ कुछ, हाँ स्मरण नहीं होता, क्या था?
प्रेम, वेदना, भ्रांति या कि क्या?
मन जिसमें सुख सोता था था।
मिले कहीं वह पडा अचानक , उसको भी न लुटा देना देना। देख तुझे भी दूँगा तेरा भाग, भाग, न उसे भुला देनादेना।"
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