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Kavita Kosh से
पल भर की उस चंचलता ने
खो दिया हृदय का स्वाधिकार,स्वाधिकार।
श्रद्धा की अब वह मधुर निशा
फैलाती निष्फल अंधकारअंधकार।
मनु को अब मृगया छोड छोड़, नहीं
रह गया और था अधिक कामकाम।
लग गया रक्त था उस मुख में-
हिंसा-सुख लाली से ललाम।
हिंसा ही नहीं-, और भी कुछ
वह खोज रहा था मन अधीर,अधीर।
अपने प्रभुत्व की सुख सीमा
जो बढती बढ़ती हो अवसाद चीर।
जो कुछ मनु के करतलगत था
उसमें न रहा कुछ भी नवीन,नवीन।
श्रद्धा का सरल विनोद नहीं रुचता
रुचता अब था बन रहा दीन।
उठती अंतस्तल से सदैव
दुर्ललित लालसा जो कि कांत,कांत।
वह इंद्रचाप-सी झिलमिल हो
"निज उद्गम का मुख बंद किये
कब तक सोयेंगे अलस प्राण,प्राण।
जीवन की चिर चंचल पुकार
रोये कब तक, है कहाँ त्राणत्राण।
श्रद्धा का प्रणय और उसकी
आरंभिक सीधी अभिव्यक्ति,अभिव्यक्ति।
जिसमें व्याकुल आलिंगन का
अस्तित्व न तो है कुशल सूक्तिसूक्ति।
भावनामयी वह स्फूर्त्ति नहीं
नव-नव स्मित रेखा में विलीन,विलीन।
अनुरोध न तो उल्लास,नहीं
आती है वाणी में न कभी
वह चाव भरी लीला-हिलोर,हिलोर।
इठलाती हो चंचल मरोर।
जब देखो बैठी हुई वहीं
शालियाँ बीन कर नहीं श्रांत,श्रांत।
या अन्न इकट्ठे करती है
होती न तनिक सी कभी क्लांतक्लांत।
बीजों का संग्रह और इधर
चलती है तकली भरी गीत,गीत।
सब कुछ लेकर बैठी है वह,
लौटे थे मृगया से थक कर
दिखलाई पडता गुफा-द्वार,द्वार।
पर और न आगे बढने की
इच्छा होती, करते विचारविचार।
मृग डाल दिया, फिर धनु को भी,
मनु बैठ गये शिथिलित शरीरशरीर।
बिखरे ते सब उपकरण वहीं
" पश्चिम की रागमयी संध्या
अब काली है हो चली, किंतु,किंतु।
अब तक आये न अहेरीवे
" यों सोच रही मन में अपने
हाथों में तकली रही घूम,घूम।
श्रद्धा कुछ-कुछ अनमनी चली
केतकी-गर्भ-सा पीला मुँह
आँखों में आलस भरा स्नेह,स्नेह।
कुछ कृशता नई लजीली थी
कंपित लतिका-सी लिये देहदेह।
मातृत्व-बोझ से झुके हुए
कोमल काले ऊनों की
नवपट्टिका बनाती रुचिर साज,साज।
सोने की सिकता में मानों
एक पंक्ति कर रही हासहास।
श्रम-बिंदु बना सा झलक रहा
भावी जननी का सरस गर्व,गर्व।
बन कुसुम बिखरते थे भू पर
मनु ने देखा जब श्रद्धा का
वह सहज-खेद से भरा रूप,रूप।
अपनी इच्छा का दृढ विरोध-
जिसमें वे भाव नहीं अनूप।
वे कुछ भी बोले नहीं, रहे
श्रद्धा कुछ कुछ मुस्करा उठी
'दिन भर थे कहाँ भटकते तमतुम'
बोली श्रद्धा भर मधुर स्नेह-
"यह हिंसा इतनी है प्यारी
जो भुलवाती है देह-देहदेह।
मैं यहाँ अकेली देख रही पथ,
सुनती-सी पद-ध्वनि नितांत,नितांत।
कानन में जब तुम दौड दौड़ रहे
मृग के पीछे बन कर अशांत
ढल गया दिवस पीला पीला
तुम रक्तारूण रक्तारुण वन रहे घूम,घूम।
देखों नीडों में विहग-युगल
अपने शिशुओं को रहे चूमचूम।
उनके घर मेम में कोलाहल है
मेरा सूना है गुफा-द्वारद्वार।
तुमको क्या ऐसी कमी रही
" श्रद्धे तुमको कुछ कमी नहीं
पर मैं तो देक देख रहा अभाव,अभाव।
भूली-सी कोई मधुर वस्तु
चिर-मुक्त-पुरुष वह कब इतने
गतिहीन पंगु-सा पडापड़ा-पडापड़ा
ढह कर जैसे बन रहा डीह।
जब जडजड़-बंधन-सा एक मोह
कसता प्राणों का मृदु शरीर,शरीर।
तब ग्रंथि तोडती हो अधीर।
हँस कर बोले, बोलते हुए निकले निकले मधु-निर्झर-ललित-गान,गान।
गानों में उल्लास भरा
वह आकुलता अब कहाँ रही
जिसमें सब कुछ ही जाय भूल,भूल।
आशा के कोमल तंतु-सदृश
तुम्हें शावक के सुंदर मृदुल चर्म?
तुम बीज बीनती क्यों? मेरा
तिस पर यह पीलापन केसा-कैसा
यह क्यों बुनने का श्रम सखेद?
यह किसके लिए, बताओ तो क्या
क्या इसमें है छिप रहा भेद?"
" अपनी रक्षा करने में जो
चल जाय तुम्हारा कहीं अस्त्रअस्त्र।
वह तो कुछ समझ सकी हूँ मैं-
हिंसक से रक्षा करे शस्त्र।
पर जो निरीह जीकर भी कुछ
वे क्यों न जियें, उपयोगी बन-
इसका मैं समझ सकी न अर्थ।