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|रचनाकार=जयशंकर प्रसाद
}}
चमडे "चमड़े उनके आवरण रहे
ऊनों से चले मेरा काम,काम।
वे जीवित हों मांसल बनकर
वे द्रोह न करने के स्थल हैं
जो पाले जा सकते सहेतु,सहेतु।
पशु से यदि हम कुछ ऊँचे हैं
"मैं यह तो मान नहीं सकता
सुख-सहज लब्ध यों छूट जायँ,जायँ।
जीवन का जो संघर्ष चले
काली आँखों की तारा में-
मैं देखूँ अपना चित्र धन्य,धन्य।
मेरा मानस का मुकुर रहे
श्रद्धे यह नव संकल्प नहीं-
चलने का लघु जीवन अमोल,अमोल।
मैं उसको निश्चय भोग चलूँ
जो सुख चलदल सा रहा डोलडोल।
यह चिर-प्रशांत-मंगल की
क्यों अभिलाषा इतनी जाग रहीजाग?
यह संचित क्यों हो रहा स्नेह
यह जीवन का वरदान-मुझे
दे दो रानी-अपना दुलार,दुलार।
केवल मेरी ही चिता चिंता का
तव-चित्त वहन कर रहे भार।
मेरा सुंदर विश्राम बना सृजता
हो मधुमय विश्व एक,एक।
जिसमें बहती हो मधु-धारा
"मैंने तो एक बनाया है
चल कर देखो मेरा कुटीर,कुटीर।"
यों कहकर श्रद्धा हाथ पकडपकड़
मनु को वहाँ ले चली अधीर।
उस गुफा समीप पुआलों की
छाजन छोटी सी शांति-पुंज,पुंज।
कोमल लतिकाओं की डालें
मिल सघन बनाती जहाँ कुमज।कुंज।
थे वातायन भी कटे हुए-
प्राचीर पर्णमय रचित शुभ्र,शुभ्र।
आवें क्षण भर तो चल जायँ-
रूक जायँ कहीं न समीर, अभ्र।
उसमें था झूला वेतसी-------------------------------
लता का सुरूचिपूर्ण,
कितनी मीठी अभिलाषायें
उसमें चुपके से रहीं घूमघूम।
कितने मंगल के मधुर गान
उसके कानों को रहे चूमचूम।
मनु देख रहे थे चकित नया यह
गृहलक्ष्मी का गृह-विधानविधान।
पर कुछ अच्छा-सा नहीं लगा
चुप थे पर श्रद्धा ही बोली-
"देखो यह तो बन गया नीड,नीड़।
पर इसमें कलरव करने को
आकुल न हो रही अभी भीड।भीड़।
तुम दूर चले जाते हो जब-
तब लेकर तकली, यहाँ बैठ,बैठ।
मैं उसे फिराती रहती हूँ
मैं बैठी गाती हूँ तकली के
प्रतिवर्त्तन में स्वर विभोर-विभोर।
'चल रि री तकली धीरे-धीरे
प्रिय गये खेलने को अहेर'।
जीवन का कोमल तंतु बढेबढ़े
तेरी ही मंजुलता समान,समान।
चिर-नग्न प्राण उनमें लिपटे
सुंदरता का कुछ बढे बढ़े मान।
किरनों-सि सी तू बुन दे उज्ज्वल
मेरे मधु-जीवन का प्रभात,प्रभात।
जिसमें निर्वसना प्रकृति सरल ढँक ढँक ले प्रकाश से नवल गात।
वासना भरी उन आँखों पर
आवरण डाल दे कांतिमान,कांतिमान।
जिसमें सौंदर्य निखर आवे
अब वह आगंतुक गुफा बीच
पशु सा न रहे निर्वसन-नग्न,नग्न।
अपने अभाव की जडता जड़ता में वह
रह न सकेगा कभी मग्न।
सूना रहेगा मेरा यह लघु-
विश्व कभी जब रहोगे न,न।
मैं उसके लिये बिछाऊँगाबिछाऊँगी
फूलों के रस का मृदुल फे।फेन।
झूले पर उसे झुलाऊँगी
दुलरा कर लूँगी बदन चूम,चूम।
मेरी छाती से लिपटा इस
वह आवेगा मृदु मलयज-सा
लहराता अपने मसृण बाल,बाल।
उसके अधरों से फैलेगी
अपनी मीठी रसना से वह
बोलेगा ऐसे मधुर बोल,बोल।
मेरी पीडा पीड़ा पर छिडकेगी छिड़केगी जो
कुसुम-धूलि मकरंद घोल।
मेरी आँखों का सब पानी
तब बन जायेगा अमृत स्निग्धस्निग्ध।
उन निर्विकार नयनों में जब
देखूँगी अपना चित्र मुग्धमुग्ध।"
"तुम फूल उठोगी लतिका सी
कंपित कर सुख सौरभ तरंग,तरंग।
मैं सुरभि खोजता भटकूँगा
यह जलन नहीं सह सकता मैं
चाहिये मुझे मेरा ममत्व,ममत्व।
इस पंचभूत की रचना में मैं
यह द्वैत, अरे यह विधातो है विधा तो
है प्रेम बाँटने का प्रकारप्रकार।
भिक्षुक मैं ना, यह कभी नहीं-
मैं लोटा लौटा लूँगा निज विचार।
तुम दानशीलता से अपनी बन
सजल जलद बितरो न विदु।बिन्दु।
इस सुख-नभ में मैं विचरूँगा
भूले कभी निहारोगी कर
आकर्षणमय हास एक,एक।
मायाविनि मैं न उसे लूँगा
वरदान समझ कर-जानु टेकटेक।
इस दीन अनुग्रह का मुझ पर
तुम बोझ डालने में समर्थ-समर्थ।
अपने को मत समझो श्रद्धे
तुम अपने सुख से सुखी रहो
मुझको दुख पाने दो स्वतंत्र,स्वतंत्र।
' मन की परवशता महा-दुखदुःख'
मैं यही जपूँगा महामंत्रमहामंत्र।
लो चला आज मैं छोड छोड़ यहीं
संचित संवेदन-भार-पुंज,पुंज।
मुझको काँटे ही मिलें धन्य
कह, ज्वलनशील अंतर लेकर मनु
मनु चले गये, था शून्य प्रांत,प्रांत।
"रूक रुक जा, सुन ले ओ निर्मोही"
वह कहती रही अधीर श्रांत।