भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
{{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=राजू सारसर ‘राज’संजय आचार्य वरुण
|अनुवादक=
|संग्रह=म्हारै पांती रा सुपना मुट्ठी भर उजियाळौ / राजू सारसर ‘राज’संजय आचार्य वरुण
}}
{{KKCatKavita}}
{{KKCatRajasthaniRachna}}
<poem>
म्हारी डायरी में
म्हारै हाथां सूं
बिछायोड़ा
आखरां में
कदे कदे
म्हनै दीखै
म्हारौ खुद रौ उणियारौ।
कदे कदे
जद आसै पासै
कोई नीं हुवै
तो म्हारै गीतां अर कवितावां रा
सबद
खूंटा तोड़ाय
बारै आय
हवा में तिरण लाग जावै।
म्हारै कमरै में
आखर ही आखर
जाणें
गोठ मनावण ने
भेळा हुया हुवै
मात्रावां अर व्याकरण रै
छन्द अर ‘मिटर’ रै
बधन सूं
मुगत होय
सुतन्तरता सूं
आखर
खूब राफड़ घालै
नाचै हंसै
अर खेलै
लुकमीचणी
म्हारै ऊपर।
जोर जोर सूं
जांण बूझ
बेसुरा होय गावै
उणीं’ज गीतां ने
जिण सूं
बै निकळ्या है।
</poem>