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यह जीवन विक्षुब्ध महासमीर
ले साथ विकल परमाणु-पुंजपुंज।
नभ, अनिल, अनल,
भयभीत सभी को भय देतादेता।
भय की उपासना में विलीन
प्राणी कटुता को बाँट रहारहा।
जगती को करता अधिक दीन
निर्माण और प्रतिपद-विनाश मेंमें।
दिखलाता अपनी क्षमता
संघर्ष कर रहा-सा सब से,से।
सब से विराग सब पर ममता
अस्तित्व-चिरंतन-धनु से कब,कब।
यह छूट पड़ा है विषम तीर
अपने जड़-गौरव के प्रतीक
उन्मुक्त, उपेक्षा भरे तुंग।
हूँ चाह रहा अपने मन की
जो चूम चला जाता अग-जगजग।
प्रति-पग में कंपन की तरंग