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Kavita Kosh से
कोल्हू के बैल की तरह
घूमते रहे हैं जो एक ही जगह
खुर वही पुजे हैं
छूते ही रहे सदा ऊपरी सतह
घूमते रहे हैं जो एक ही जगह
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