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Kavita Kosh से
'''एक'''
जबसे तूने मुझे, मैंने तुझे, छोड़ा।
बार-बार चर्चों में, तुझे मुझे जोड़ा।।
'''दो'''
अपना-अपना मत, अपना-अपना अभियोग
बस यहीं सहमत हैं-बच्चा है भूल।।
'''तीन'''
सहसा, अप्रत्याशित, यों ही हुए आत्मस्खलनों को
मगर, अब मैं मात्र ज़िस्म नहीं, कुछ देर मुझे सह लो।।
'''चार'''
नित्य ही
है मेरा, पवित्र होना।।
'''पांच'''
हे देवी मां, आज तुम्हारा व्रत टूट गया, कर दो क्षमा
दो बूंद काफी।।
'''छः'''
जाने क्यों आज मैं पहन रही हूं
इस समय तुम निश्चित ही बना रहे होगे-दाढ़ी।।
'''सात'''
तकिये पर पहले गी खुदी-शुभ रात्रि
नींद के नाम पर झेलती हूं करवट।।
'''आठ'''
सुना है तुम उसे अपने घर ले आने वाले हो
सोचकर जी जलेगा।।
'''नौ'''
रीते हुए ज़ख्मों को कुरेदना और फिर
कितना जानलेवा है, मुन्ने को नहलाना।।
'''दस'''
मैंने तुम्हें कभी पूर्णतया नहीं पाया
फिर कैसे-मैं तुम बिन अधूरी?
'''ग्यारह'''
एक लाचारी ही है, जो ढो रही हूं
वरन् मैं नहीं सावित्री।।
'''बारह'''
जाने क्यों लगता है मेरी यादें
उन फ़िल्मों की टिकटें किसी मेज़ की दराज़ में पड़ी होंगी।।
'''तेरह'''
आफ़िस में प्रमोशन
क्या सचमुच ज़िन्दगी से ऊब गयी।।
'''चौदह'''
मैं तो थी ही तुम्हारे घर की निर्वासित
और अब, मै चूज़ा, जग बाज।।
'''पंद्रह'''
एक तपती हुई दोपहर।
अब सारा शहर।।
'''सोलह'''
हथेलियों पर चुभा-चुभा कर आलपिन।
उम्र के गुज़रे हुए दिन।।
'''सत्रह'''
बिना खेले हारी हुई बाजी का टीसता एहसास।
ताश।।
'''अठारह'''
आज लाइन चली गयी।
मुन्ना भी खुश है, उसे पढ़ना नहीं पड़ेगा।।
'''उन्नीस'''
कभी शराब में डूबी तुम्हारी काया को
पत्नी होने का भ्रम पाले मैं एक वेश्या थी।।
'''बीस'''
सोचती हूं मुन्ने को किसी दूसरे शहर
मेरी उम्र का अनुमान।।
'''इक्कीस'''
ऐसा नही कि मैं नहीं समझती
और कहते हैं स्वारी रांग नम्बर।।
'''बाईस'''
उस घर में भला क्यों न उठे बवण्डर।
मेरी ब्रेसियर का नम्बर।।
'''तेईस'''
आफ़िस में सभी की घूरती नज़रें
और मैं डांटती कहकर-अश्लील।।
'''चौबीस'''
बरसते हुए पानी को, खुली खिड़की से