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कृष्णअलका / प्रवीण काश्‍यप

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<poem>
आइ फेर भेल भोर
पृथ्वीक अग्नि शांत भेल
घनीभूत मेघक संघनन सँ
आइ राति भेल वर्षा, परल बुन्न

भरि रातिक रतिक्रियाक उजगी सँ
मदमायल, अलसायल कोनो ललना
अंगेठी मोर लैत
कोनिया घरक पट फोलि
बाहर दैत अछि डेग
मुदा फेर ठोरक मधु मुस्की
आ सीत्कारमय मनक संग
सकचायल, हुलसि कऽ
घुरैत अछि अपन प्रियतमक भुजबंध में।

आइ मेघक श्यामलता सँ
संभोग करैत रस्मि-रानी
बड्ड अलसायल बड्ड लजायल सन
बिहुँसैत पहुँचलीह हमरा लग!
बड्ड दिनक बाद
आइ वाग्मती फेर भेलीह रजस्वला
सुखाइत नदी
कामासक्त यौवना जकाँ
आइ फेर भेलीह वेगवती।
आइ फेर भेल भोर
आइ भेलीह रसवंती वाग्मती।
</poem>
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