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|संग्रह=विषदंती वरमाल कालक रति / प्रवीण काश्‍यप
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<poem>
हम थिकहुँ नव पल्लव
जनि चढ़ाउ हमरा पर कोनो रंग।
हमरा लेल नहि अछि मार्क्सक लाल रंग,
ने हमर जीवन बनाओत दक्षिणपंथक भगवा!
हमरा पहिने हरियाय दियऽ
पहिने अपने रंग कें करऽ दीयऽ गहींर।
जुनि चढ़ाउ हमरा पर कोनो रंग।

हमरा नहि अछि पसिन्न कोनो आडंबर
हम नहि खसब प्रत्यक्षतः अहाँक पैर पर
ने अप्पन शीश अहाँक पैर में छुआएब!
हम नहि बनब अकशेरूकी
अहाँक, मात्र अहाँक छाया बनि कऽ
भऽ सकै’ तऽ अपना संगे लऽ चलू
जुनि चढ़ाउ हमरा पर कोनो रंग।

हम ने कहब अहाँक पीठक पाछाँ अपशब्द
नहि करब कतहु अहाँक मिमिक्रि!
हमरा अछि अस्तित्वबोध मनुष्य मात्रक
छुलाह कुकुर जकाँ नहि चाटब अहाँक पग!
हमरा प्रिय अछि स्वतंत्रता, अप्पन
जुनि चढ़ाउ हमरा पर कोनो रंग।
</poem>
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