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{{KKRachna
|रचनाकार=मलिक मोहम्मद जायसी
|अनुवादक=|संग्रह=पद्मावत / मलिक मोहम्मद जायसी}} <poem>चंपावति जो रूप सँवारी । पदमावति चाहै औतारी ॥भै चाहै असि कथा सलोनी । मेटि न जाइ लिखी जस होनी ॥सिंघलदीप भए तब नाऊँ । जो अस दिया बरा तेहि ठाऊँ ॥प्रथम सो जोति गगन निरमई । पुनि सो पिता माथे मनि भई ॥पुनि वह जोति मातु-घट आई । तेहि ओदर आदर बहु पाई ॥जस अवधान पूर होइ मासू । दिन दिन हिये होइ परगासू ॥जस अंचल महँ छिपै न दीया । तस उँजियार दिखावै हीया ॥
भए दस मास पूरि भइ घरी । पदमावति कन्या औतरी ॥
जानौ सूर किरिन-हुति काढी । सुरुज-कला घाटि, वह बाढी ॥
भा निसि महँ दिन कर परकासू । सब उजियार भएउ कविलासू ॥
इते रूप मूरति परगटी । पूनौ ससी छीन होइ घटी ॥
घटतहि घटत अमावस भई । दिन दुइ लाज गाडि भुइँ गई ॥
पुनि जो उठी दुइज होइ नई । निहकलंक ससि विधि निरमई ॥
पदुमगंध बेधा जग बासा । भौंर पतंग भए चहुँ पासा ॥