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कहाँ !
न झीलों से न सागर से,
नदी-नालों, पर्वत-कछारों से,
न वसन्ती फुलों फूलों से, न पावस की फुहारों से
भरेगी यह--यह—
यह जो न ह्रदय है, न मन,
न आत्मा, न संवेदन,
न ही मूल स्तर कि जिजीविषा--जिजीविषा—
पर ये सब हैं जिस के मुँह
ऐसी पंचमुखी गागर
मेरे समूचे अस्तित्व की--की—
जड़ी हुई मेरी आँखों के तारों से
ओ नर, अकेले, समूहगत,
ओ न-कुछ, विराट् में रूपायमान !
मुझे दे वही पहचान
जिस से परिणय ही
हो सकती है परिणति उस पात्र की ।की।
मेरे हर मुख में,
हर साहस, हर आघात के हर प्रतिकार में
धड़के नारायण ! तेरी वेदना
जो गति है मनुष्य मात्र की !
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