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रहीम दोहावली - 5

1,506 bytes removed, 07:53, 11 जून 2015
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उमड़ि-उमड़ि घन घुमड़ेरहिमन राम न उर धरै, दिसि बिदिसान। रहत विषय लपटाय।सावन दिन मनभावनपसु खर खात सवादसों, करत पयान॥401॥गुर गुलियाए खाय॥241॥
समुझति सुमुखि सयानीरहिमन रिस को छाँड़ि कै, बादर झूम। करौ गरीबी भेस।बिरहिन के हिय भभतकमीठो बोलो नै चलो, तिनकी धूम॥402॥सबै तुम्‍हारो देस।1242॥
उलहे नये अंकुरवारहिमन रिस सहि तजत नहीं, बिन बलवीर। बड़े प्रीति की पौरि।मानहु मदन महिप केमूकन मारत आवई, बिन पर तीर॥403॥नींद बिचारी दौरी॥243॥
सुगमहि गातहि गारनरहिमन रीति सराहिए, जारन देह। जो घट गुन सम होय।अगम महा अति पारनभीति आप पै डारि कै, सुघर सनेह॥404॥सबै पियावै तोय॥244॥
मनमोहन तुव मुरतिरहिमन लाख भली करो, बेरिझबार। अगुनी अगुन न जाय।बिन पियान मुहि बनिहैराग सुनत पय पिअत हू, सकल विचार॥405॥साँप सहज धरि खाय॥245॥
झूमि-झूमि चहुँ ओरनरहिमन वहाँ न जाइये, बरसत मेह। जहाँ कपट को हेत।त्यों त्यों पिय बिन सजनीहम तन ढारत ढेकुली, तरसत देह॥406॥सींचत अपनो खेत॥2461।
झूँठी झूँठी सौंहेरहिमन वित्‍त अधर्म को, हरि नित खात। जरत न लागै बार।फिर जब मिलत मरू केचोरी करी होरी रची, उतर बतात॥407॥भई तनिक में छार॥247॥
डोलत त्रिबिध मरुतवारहिमन विद्या बुद्धि नहिं, सुखद सुढार। नहीं धरम, जस, दान।हरि बिन लागब सजनीभू पर जनम वृथा धरै, जिमि तरवार॥408॥पसु बिनु पूँछ बिषान॥248॥
कहियो पथिक संदेसवारहिमन बिपदाहू भली, गहि के पाय। जो थोरे दिन होय।मोहन तुम बिन तनिकहु रह्यौ न जाय॥409॥हित अनहित या जगत में, जानि परत सब कोय॥249॥
जबते आयौ सजनीरहिमन वे नर मर चुके, मास असाढ़। जे कहुँ माँगन जाहिं।जानी सखि वा तिन केउनते पहिले वे मुए, हिम की गाढ़॥410॥जिन मुख निकसत नाहिं॥250॥
मनमोहन बिन तिय केरहिमन सीधी चाल सों, हिय दुख बाढ़। प्‍यादा होत वजीर।आये नन्द दिठनवाफरजी साह न हुइ सकै, लगत असाढ़॥411॥गति टेढ़ी तासीर॥251॥
वेद पुरान बखानतरहिमन सुधि सबतें भली, अधम उधार। लगै जो बारंबार।केहि कारन करूनानिधिबिछुरे मानुष फिरि मिलें, करत विचार॥412॥यहै जान अवतार॥252॥
लगत असाढ़ कहत होरहिमन सो न कछू गनै, चलन किसोंर। जासों, लागे नैन।घन घुमड़े चहुँ औरनसहि के सोच बेसाहियो, नाचत मोर॥413॥गयो हाथ को चैन॥253॥
लखि पावस ॠतु सजनीराम नाम जान्‍यो नहीं, पिय परदेस। भइ पूजा में हानि।गहन लग्यौ अबलनि पैकहि रहीम क्‍यों मानिहैं, धनुष सुरेस॥414॥जम के किंकर कानि॥254॥
बिरह बढ्यौ सखि अंगनराम नाम जान्‍यो नहीं, बढ्यौ चवाव। जान्‍यो सदा उपाधि।करयो निठुर नन्दनन्दनकहि रहीम तिहिं आपुनो, कौन कुदाव॥415॥जनम गँवायो बादि॥255॥
भज्यो कितौ न जनम भरिरीति प्रीति सब सों भली, कितनी जाग। बैर न हित मित गोत।संग रहत या तन रहिमन याही जनम की, छाँही भाग॥416॥बहुरि न संगति होत॥256॥
भज र मन नन्दनन्दनरूप, विपति बिदार। गोपी-जन-मन-रंजनकथा, परम उदार॥417॥जदपि बसत हैं सजनीपद, चारु, पट, कंचन, दोहा, लाखन लोग। लाल।हरि बिन कित यह चित कोज्‍यों ज्‍यों निरखत सूक्ष्‍मगति, सुख संजोग॥418॥मोल रहीम बिसाल॥257॥
जदपि भई जल पूरितरूप बिलोकि रहीम तहँ, छितव सुआस। जहँ जहँ मन लगि जाय।स्वाति बूँद बिन चातकथाके ताकहिं आप बहु, मरत-पियास॥419॥लेत छौड़ाय छोड़ाय॥258॥
देखन ही को निसदिनरोल बिगाड़े राज नै, तरफत देह। मोल बिगाड़े माल।यही होत मधुसूदनसनै सनै सरदार की, पूरन नेह॥420॥चुगल बिगाड़े चाल॥259॥
कब तें देखत सजनीलालन मैन तुरंग चढ़ि, बरसत मेह। चलिबो पावक माँहिं।गनत न चढ़े अटन पैप्रेम-पंथ ऐसो कठिन, सने सनेह॥421॥सब कोउ निबहत नाहिं॥260॥
विरह विथा तें लखियतलिखी रहीम लिलार में, मरिबौं झूरि। भई आन की आन।जो नहिं मिलिहै मोहनपद कर काटि बनारसी, जीवन मूरि॥422॥पहुँचे मगरु स्‍थान॥261॥
उधौं भलौ लोहे की कहनौलोहार का, कछु पर पूठि। रहिमन कही विचार।साँचे ते भे झूठेजो हनि मारे सीस में, साँची झूठि॥423॥ताही की तलवार॥262॥
भादों निस अँधियरियाबरु रहीम कानन भलो, घर अँधियार। बास करिय फल भोग।बिसरयो सुघर बटोही, शिव आगार॥424॥बंधु मध्‍य धनहीन ह्वै बसिबो उचित न योग॥263॥
हौं लखिहौ री सजनीबहै प्रीति नहिं रीति वह, चौथ मयंक। नहीं पाछिलो हेत।देखों केहि बिधि हरि सोंघटत घटत रहिमन घटै, लगत कलंक॥425॥ज्‍यों कर लीन्‍हें रेत॥264॥
इन बातन कछु होत नबिधना यह जिय जानि कै, कहो हजार। सेसहि दिये न कान।सबही तैं हँसि बोलतधरा मेरु सब डोलि हैं, नन्दकुमार॥426॥तानसेन के तान॥265॥
कहा छलत को ऊधौबिरह रूप धन तम भयो, दै परतीति। अवधि आस उद्योत।सपनेहूं नहिं बिसरैज्‍यों रहीम भादों निसा, मोहनि-मीति॥427॥चमकि जात खद्योत॥266॥
बन उपवन गिरि सरितावे रहीम नर धन्‍य हैं, जिती कठोर। पर उपकारी अंग।लगत देह से बिछुरेबाँटनेवारे को लगे, नन्द किसोर॥428॥भलि भलि दरसन दीनहु, सब निसि टारि। कैसे आवन कीनहु, हौं बलिहारि॥429॥ज्‍यों मेंहदी को रंग॥267॥
अदिहि-ते सब छुटगोसदा नगारा कूच का, जग व्यौहार। बाजत आठों जाम।ऊधो अब न तिनौं भरिरहिमन या जग आइ कै, रही उधार॥430॥को करि रहा मुकाम॥268॥
घेर रह्यौ दिन रतियाँसब को सब कोऊ करै, विरह बलाय। कै सलाम कै राम।मोहन की वह बतियाँहित रहीम तब जानिए, ऊधो हाय॥431॥जब कछु अटकै काम॥269॥
नर नारी मतवारीसबै कहावै लसकरी, अचरज नाहिं। सब लसकर कहँ जाय।होत विटपहू नागौरहिमन सेल्‍ह जोई सहै, फागुन माहि॥432॥सो जागीरैं खाय॥270॥
सहज हँसोई बातेंसमय दसा कुल देखि कै, होत चवाइ। सबै करत सनमान।मोहन कों तन सजनीरहिमन दीन अनाथ को, दै समुझाइ॥433॥तुम बिन को भगवान॥271॥
ज्यों चौरसी लख मेंसमय परे ओछे बचन, मानुष देह। सब के सहै रहीम।त्योंही दुर्लभ जग मेंसभा दुसासन पट गहे, सहज सनेह॥434॥गदा लिए रहे भीम॥272॥
मानुष तन अति दुर्लभसमय पाय फल होत है, सहजहि पाय। समय पाय झरि जाय।हरि-भजि कर संत संगतिसदा रहे नहिं एक सी, कह्यौ जताय॥435॥का रहीम पछिताय॥273॥
अति अदभुत छबि- सागरसमय लाभ सम लाभ नहिं, मोहन-गात। समय चूक सम चूक।देखत ही सखि बूड़तचतुरन चित रहिमन लगी, दृग-जलजात॥436॥समय चूक की हूक॥274॥
निरमोंही अति झूँठौसरवर के खग एक से, साँवर गात। बाढ़त प्रीति न धीम।चुभ्यौ रहत चित कौधौंपै मराल को मानसर, जानि न जात॥437॥एकै ठौर रहीम॥275॥
बिन देखें कल नाहिनसर सूखे पच्‍छी उड़ै, यह अखियान। औरे सरन समाहिं।पल-पल कटत कलप सोंदीन मीन बिन पच्‍छ के, अहो सुजान॥438॥कहु र‍हीम कहँ जाहिं॥276॥
जब तब मोहन झूठीस्‍वारथ रचन रहीम सब, सौंहें खात। औगुनहू जग माँहि।इन बातन ही प्यारेबड़े बड़े बैठे लखौ, चतुर कहात॥439॥ब्रज-बासिन के मोहन, जीवन प्रान। ऊधो यह संदेसवा, अहक कहान॥440॥पथ रथ कूबर छाँहि॥277॥
मोहि मीत बिन देखेंस्‍वासह तुरिय उच्‍चरै, छिन न सुहात। तिय है निहचल चित्‍त।पल पल भरि भरि उलझतपूत परा घर जानिए, दृग जल जात॥441॥रहिमन तीन पवित्‍त॥278॥
जब तें बिछरे मितवासाधु सराहै साधुता, कहु कस चैन। जती जोखिता जान।रहत भरयौ हिय साँसनरहिमन साँचै सूर को, आँसुन नैन॥442॥बैरी करै बखान॥279॥
कैसे जावत कोऊसौदा करो सो करि चलौ, दूरि बसाय। रहिमन याही बाट।पल अन्तरहूं सजनीफिर सौदा पैहो नहीं, रह्यो न जाय॥443॥दूरी जान है बाट॥280॥
जान कहत हो ऊधौसंतत संपति जानि कै, अवधि बताइ। सब को सब कुछ देत।अवधि अवधि-लौं दुस्तरदीनबंधु बिनु दीन की, परत लखाइ॥444॥को रहीम सुधि लेत॥281॥
मिलनि न बनि है भाखतसंपति भरम गँवाइ कै, इन इक टूक। हाथ रहत कछु नाहिं।भये सुनत ही हिय केज्‍यों रहीम ससि रहत है, अगनित टूक॥445॥दिवस अकासहिं माहिं॥282॥
गये हरि हरि सजनीससि की सीतल चाँदनी, बिहँसि कछूक। सुंदर, सबहिं सुहाय।तबते लगनि अगनि कीलगे चोर चित में लटी, उठत भभूक॥446॥घटी रहीम मन आय॥283॥
होरी पूजत सजनीससि, जुर नर नारि। सुकेस, साहस, सलिल, मान सनेह रहीम।जरि-बिन जानहु जिय मेंबढ़त बढ़त बढ़ि जात हैं, दई दवारि॥447॥घटत घटत घटि सीम॥284॥
दिस बिदसान करत ज्योंसीत हरत, कोयल कू। तम हरत नित, भुवन भरत नहिं चूक।चतुर उठत है त्यों त्योंरहिमन तेहि रबि को कहा, हिय में हूक॥448॥जो घटि लखै उलूक॥285॥
जबते मोहन बिछुरेहरि रहीम ऐसी करी, कछु सुधि नाहिं। ज्‍यों कमान सर पूर।रहे प्रान परि पलकनिखैंचि अपनी ओर को, दृग मग माहिं॥449॥डारि दियो पुनि दूर॥286॥
उझिक उझिक चित दिन दिनहरी हरी करुना करी, हेरत द्वार। सुनी जो सब ना टेर।जब ते बिछुरे सजनीडग भरी उतावरी, नेन्द्कुमार॥450॥मनमोहन हरी करी की सजनी, हँसि बतरान। हिय कठोर कीजत पै, खटकत आन॥451॥बेर॥287॥
जक न परत बिन हेरेहित रहीम इतऊ करै, सखिन सरोस। जाकी जिती बिसात।हरि नहिं यह रहै मिलत बसि नेरेवह रहै, यह अफसोस॥452॥रहै कहन को बात॥288॥
चतुर मया करि मिलिहौं, तुरतहिं आय। होत कृपा जो बड़ेन की सो कदाचि घटि जाय।बिन देखे निस बासरतौ रहीम मरिबो भलो, तरफत जाय॥453॥यह दुख सहो न जाय॥289॥
तुम सब भाँतिन चतुरेहोय न जाकी छाँह ढिग, यह कल बात। फल रहीम अति दूर।होरि के त्यौहारनबढ़िहू सो बिनु काज ही, पीहर जात॥454॥जैसे तार खजूर॥290॥
और कहा हरि कहिये, चनि यह नेह। देखन ही को निसदिन, तरफत देह॥455॥'''सोरठा'''
जब तें बिछुरे मोहनओछे को सतसंग, भूख न प्यास। रहिमन तजहु अँगार ज्‍यों।बेरि बेरि बढ़ि आवततातो जारै अंग, बड़े उसास॥456॥सीरो पै करो लगै॥291॥
अन्तरग्त हिय बेधतरहिमन कीन्‍हीं प्रीति, छेदत प्रान। साहब को भावै नहीं।विष सम परम सबन तेंजिनके अगनित मीत, लोचन बान॥457॥हमैं गीरबन को गनै॥292॥
गली अँधेदी मिल कैरहिमन जग की रीति, रहि चुपचाप। मैं देख्‍यो रस ऊख में।बरजोरी मनमोहनताहू में परतीति, करत मिलाप॥458॥जहाँ गाँठ तहँ रस नहीं॥293॥
सास ननद गुरु पुरजनजाके सिर अस भार, रहे रिसाय। सो कस झोंकत भार अस।मोहन हू अस निसरेरहिमन उतरे पार, हे सखि हाय॥459॥भार झोंकि सब भार में॥294॥
उन बिन कौन निबाहैरहिमन नीर पखान, हित की लाज। बूड़ै पै सीझै नहीं।ऊधो तुमहू कहियोतैसे मूरख ज्ञान, धनि बृजराज॥460॥बूझै पै सूझै नहीं॥295॥
जिहिके लिये जगत मेंरहिमन बहरी बाज, बजै निसान। गगन चढ़ै फिर क्‍यों तिरै।तिहिं-ते करे अबोलनपेट अधम के काज, कौन सयान॥461॥रे मन भज निस वासर, श्री बलवीर। जो बिन जाँचे टारत, जन की पीर॥462॥फेरि आय बंधन परै॥296॥
विरहिन को सब भाखतरहिमन मोहि न सुहाय, अब जनि रोय। अमी पिआवै मान बिनु।पीर पराई जानैबरु विष देय, तब कहु कोय॥463॥बुलाय, मान सहित मरिबो भलो॥297॥
सबै कहत हरि बिछुरे, उर धर धीर। बिंदु मों सिंधु समान को अचरज कासों कहै।बौरी बाँझ न जानैहेरनहार हेरान, ब्यावर पीर॥464॥रहिमन अपुने आप तें॥298॥
लखि मोहन की बंसीचूल्‍हा दीन्‍हो बार, बंसी जान। नात रह्यो सो जरि गयो।लागत मधुर प्रथम पैरहिमन उतरे पार, बेधत प्रान॥465॥ तै चंचल चित हरि कौ, लियौ चुराइ। याहीं तें दुचती सी, परत लखाई॥466॥ मी गुजरद है दिलरा, बे दिलदार। इक इक साअत हमचूँ, साल हजार॥467॥ नव नागर पद परसी, फूलत जौन। मेटत सोक असोक सु, अचरज कौन॥468॥ समुझि मधुप कोकिल की, यह रस रीति। सुनहू श्याम की सजनी, का परतीति॥469॥ नृप जोगी भर झोंकि सब जानत, होत बयार। संदेसन तौ राखत, हरि ब्यौहार॥470॥ मोहन जीवन प्यारे, कस हित कीन। दरसन ही कों तरफत, ये दृग मीन॥471॥ भजि मन राम सियापति, रघुकुल ईस। दीनबन्धु दुख टारन, कौसलधीस॥472॥गर्क अज मैं शुद आलम, चन्द हजार। बे दिलदार कै गीरद, दिलम करार॥473॥ दिलबर जद बर जिगरम, तीर निगाह। तपीदा जाँ भी आयद, हरदम आह॥474॥ लोग लुगाई हिलमिल, खेतल फाग। परयौ उड़ावन मौकौं, सब दिन काग॥475॥ मो जिय कोरी सिगरी, ननद जिठानि। भई स्याम सों तब तें, तनक पिछानि॥476॥ होत विकल अनलेखै, सुधर कहाय। को सुख पावत सजनी, नेह लगाय॥477॥ अहो सुधाधर प्यारे, नेह निचोर। देखन ही कों तरसे, नैन चकोर॥478॥ आँखिन देखत सबही, कहत सुधारि। पै जग साँची प्रीत न, चातक टारि॥479॥ पथिक आय पनघटवा, कहता पियाव। पैया परों ननदिया, फेरि कहाव॥480॥ या झर में घर घर में, मदन हिलोर। पिय नहिं अपने कर में, करमैं खोर॥481॥ बालम अस मन मिलयउँ, जस पय पानि। हंसनि भइल सवतिया, लई बिलगानि॥482॥भार में॥299॥
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