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सुर्ख पंखिरयाँ सुबह की धूप में
तमाम पृथ्वी को अपनी चमक से आंदोिलत आंदोलित करती हुई
तहों की बंद परत के बीच से सुगंध भाप की तरह ऊपर उठती है
वह गंध
वह पंखिरयोंं पंखिरयों के वर्तुल रूपक में िलपटालिपटा
कोमलता, सुकुवांर्ता, सौंदर्य प्रतीक
दृष्टी दूर तक स्वयं के संग जाना चाहती है
कार के शीशे चढ़ाती िगराती गिराती भंगिमाओं के बीच