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{{KKRachna
|रचनाकार=वीरेंद्र मिश्र
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
{{KKCatBaalKavita}}
<poem>गहरा है अँधियारा, दिया जलाना है!
हमको तुमको सबको आगे आना है!
ऐसे बढ़ो कि आँधी लोहा मान ले,
ऐसे पढ़ो कि पुस्तक तुमसे ज्ञान ले,
सागर की गहराई मन में ढालकर-
ऐसे चढ़ो कि पर्वत भी पहचान ले!
मंजिल तो बढ़ने का एक बहाना है,
हमको, तुमको, सबको आगे आना है!
लहरें उठती गिरती और संभलती हैं,
ऋतुएँ भी अपने परिधान बदलती हैं,
बुझ जाता है एक दिया तूफानों में-
उसके पीछे कई मशालें जलती हैं!
जहाँ नहीं आया परिवर्तन लाना है!
हमको, तुमको, सबको आगे आना है!
कुछ जंजीरें टूटी हैं, कुछ शेष हैं,
अब भी भारत माँ के बिखरे केश हैं,
जिधर नजर जाती, आँसू की भीड़ है-
हम पर तुम पर आँख लगाए देश है!
हम न रुकेंगे आगे गया जमाना है!
हमको, तुमको, सबको आगे आना है!
</poem>
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|रचनाकार=वीरेंद्र मिश्र
|अनुवादक=
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<poem>गहरा है अँधियारा, दिया जलाना है!
हमको तुमको सबको आगे आना है!
ऐसे बढ़ो कि आँधी लोहा मान ले,
ऐसे पढ़ो कि पुस्तक तुमसे ज्ञान ले,
सागर की गहराई मन में ढालकर-
ऐसे चढ़ो कि पर्वत भी पहचान ले!
मंजिल तो बढ़ने का एक बहाना है,
हमको, तुमको, सबको आगे आना है!
लहरें उठती गिरती और संभलती हैं,
ऋतुएँ भी अपने परिधान बदलती हैं,
बुझ जाता है एक दिया तूफानों में-
उसके पीछे कई मशालें जलती हैं!
जहाँ नहीं आया परिवर्तन लाना है!
हमको, तुमको, सबको आगे आना है!
कुछ जंजीरें टूटी हैं, कुछ शेष हैं,
अब भी भारत माँ के बिखरे केश हैं,
जिधर नजर जाती, आँसू की भीड़ है-
हम पर तुम पर आँख लगाए देश है!
हम न रुकेंगे आगे गया जमाना है!
हमको, तुमको, सबको आगे आना है!
</poem>