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स्मृति / पृथ्वी पाल रैणा

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गुनगुनी सी धूप थी
या कहर बरपाती हवाएँ
यह नहीं मालूम मुझको
मैं अभी पैदा हुआ था ।
फिर बसन्ती फूल भी
खेतों में लहराए तो होंगे ।
गर्मियों ने आ सुलगते
रास्तों पर, पैर राहगीरों के
झुलसाए भी होंगे ।
धुल गये होंगे सभी शिकवे गिले
जब गगन में मेघ
उमड़ आए होंगे ।
सारी धरती धुल गई
वर्षा ऋतु में,
घने बादल खूब बरसे
जम गए फिर सर्द होकर ।
उस बरस दीपावली आई तो थी
पर मेरे आंगन में वह
हलचल न थी ।
मेरे घर में दीपमाला की जगह
एक सन्नाटा
उतर कर आ गया था ।
वर्ष भर भीतर ही भीतर
चल रही थी,
ज़िंदगी और मौत
की जद्दोजहद ।
कौन जीतेगा किसे मालूम था ।
एक आकर्षण था जीने के लिए
एक मजबूरी उखड़ती सांस की
जि़न्दगी जब साथ न दे
मौत देहरी पर खड़ी हो
क्या करे कोई
हृदय के दर्द का ।
रंग बदला फिर फ़िज़ा ने
धूप फिर खिलने लगी थी
कि अचानक-
सिर पे मेरे हाथ रख
आशीष दे
थक गई थी सो गई
फिर उठ न पाई
वह
जिसके भीतर से उगी थी देह मेरी ।
घर से बाहर ही नहीं निकला
कई दिन, हाथ बांधे
द्वार पर अटका रहा
सोच कर कि
गोद में मुझ को उठा
ले जाएगी वह ।
हर सुबह सूरज निकलता
शाम को फिर डूब जाता
रात मेरे मन को
बहलाती कभी पुचकारती
ऐसा लगता था
नई सुबह के साथ
ज़िन्दगी की फिर
नई शुरुआत होगी ।
मास बीते वर्ष बीते,
जि़न्दगी चलती रही ।
एक सपने की तरह
एेहसास धुंधले पड़ गए
खो गया वह वक्त
फिर जाने कहां ।
मैं अकेला जि़न्दगी ढोता रहा
हर नई ठोकर से सीखा
जाग कर जीना
कोई मकसद
अब नहीं बाकी बचा है ।
फिर भी जग के
मोह से चिपका हुआ हूं ।
कौन सी हसरत मुझे
बांधे हुए है,
जान पाऊंगा तो कुछ
राहत मिलेगी ।


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