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|रचनाकार=दिनेश कुमार स्वामी 'शबाब मेरठी']]
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<poem>
चाँदनी ओढ़कर पड़े रहिये
गर्मियों में धुले-धुले रहिये
मेरे अश्कों को छू रही है हवा
रातभर आप भीगते रहिये
ऐसे घर भी यहाँ पे मिलते हैं
जिनकी दीवार ढूँढते रहिये
या तो पर सौंप दीजिए उनको
या सलाख़ों से झाँकते रहिये
दिल के मेले में भीड़ है काफ़ी
धद़्अकनों से बँधे-बँधे रहिये
सोचना भी सफ़र का हिस्सा है
जब कभी शह्र में खड़े रहिये
यादगारों की बुर्जियों पे शबाब
उम्र भर धुँध-से टँगे रहिये
</poem>
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चाँदनी ओढ़कर पड़े रहिये
गर्मियों में धुले-धुले रहिये
मेरे अश्कों को छू रही है हवा
रातभर आप भीगते रहिये
ऐसे घर भी यहाँ पे मिलते हैं
जिनकी दीवार ढूँढते रहिये
या तो पर सौंप दीजिए उनको
या सलाख़ों से झाँकते रहिये
दिल के मेले में भीड़ है काफ़ी
धद़्अकनों से बँधे-बँधे रहिये
सोचना भी सफ़र का हिस्सा है
जब कभी शह्र में खड़े रहिये
यादगारों की बुर्जियों पे शबाब
उम्र भर धुँध-से टँगे रहिये
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